आध्यात्मिक विचार - 31-03-2011



मानव जीवन का अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष मनुष्य शरीर में रहते हुए ही प्राप्त होता है। 

जो व्यक्ति शरीर में रहते हुए स्वयं को सभी कर्म बन्धन से मुक्त अनुभव कर लेता है, और जीवन की अन्तिम श्वाँस तक मुक्त भाव में स्थिर रहता है, ऎसा व्यक्ति स्थिर प्रज्ञ कहलाता है।

ऎसी स्थिर प्रज्ञ जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करके संसार में फ़िर कभी लौटकर नही आती है, वह जीवात्मा भगवान के परम-धाम में नित्य शाश्वत जीवन को प्राप्त होती है।

आध्यात्मिक विचार - 30-03-2011

शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति अपने वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार कर्म करता है, केवल वही अपने धर्म का पालन कर पाता है।

प्रत्येक व्यक्ति का धर्म अलग-अलग होता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुरु से धर्म की शिक्षा लेकर अपने धर्म का पालन करना चाहिये।

जो व्यक्ति श्रद्धा के साथ गुरु के शरणागत होकर अपने धर्म को जानकर अपने धर्म का आचरण करते हैं, केवल वही व्यक्ति सभी पाप कर्मों से बच पाता है, धर्म पालन के बिना पाप कर्मों से बच पाना असंभव है।

आध्यात्मिक विचार - 29-03-2011

मनुष्य द्वारा केवल नि:स्वार्थ भाव से जो भी पुरुषार्थ किये जाते हैं, उन सभी पुरुषार्थों के द्वारा भगवान की सच्ची भक्ति ही होती हैं।

जब व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का बिना फल की इच्छा से क्रमशः पालन करता है, तो वह व्यक्ति शीघ्र ही भगवान की कृपा की पात्रता हासिल कर लेता है।

आध्यात्मिक विचार - 28-03-2011

संसार का चिंतन चिंताग्रस्त करता है और भगवान का चिंतन सभी चिंताओं से मुक्त करता है।

संसार में हर व्यक्ति चिंतन करता है, चिंतन किये बिना कोई व्यक्ति एक क्षण भी नहीं रह सकता है, संसार के चिंतन से बंधनकारी फल उत्पन्न होता है और भगवान चिंतन से मुक्तिकारी फल उत्पन्न होता है।

जब व्यक्ति भगवान का चिंतन करता है तो संसार का चिंतन नहीं होता है और जब व्यक्ति भगवान का चिंतन नहीं करता है तो संसार का चिंतन स्वतः ही होने लगता है।

आध्यात्मिक विचार - 27-03-2011

ज्ञानी बनकर कभी ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, ज्ञान हमेशा अज्ञानी बनकर ही प्राप्त किया जा सकता है।

जिस प्रकार एक अबोध बालक प्रश्न पूछता है और उस प्रश्न के उत्तर को सहज-भाव से स्वीकार करता है, उसी प्रकार प्रश्न पूछने पर और उत्तर को स्वीकार करने वाला ही ज्ञान की प्राप्ति कर पाता है।

ज्ञानी बनकर कभी ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, ज्ञान हमेशा अज्ञानी बनकर ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि बिना ज्ञान के विज्ञान यानि अनुभव असंभव है।

आध्यात्मिक विचार - 26-03-2011

उत्थान के मार्ग पर एक शिष्य ही चल सकता है, गुरु के बिना शिष्य का उत्थान असंभव होता है।

वही व्यक्ति उत्थान के मार्ग पर चल पाता है जो शिष्य के धर्म का पालन करता है अन्यथा हर व्यक्ति पतन के मार्ग पर तो चल ही रहा है।

गुरु का धर्म शास्त्रों के अनुसार शिक्षा देना होता है और शिष्य का धर्म श्रद्धा और विश्वास के साथ सुनकर गुरु की आज्ञा को भगवान की आज्ञा समझकर पालन करना होता है।

आध्यात्मिक विचार - 25-03-2011


संसार में व्यक्ति पास जो कुछ भी प्राप्त है वह सभी वस्तु भगवान की हैं भगवान ने वह वस्तुऎं हमें उपयोग करने के लिये दी हैं।

जब व्यक्ति उन सभी वस्तुओं को अपना समझकर स्वयं के लिये उपभोग करता है तो प्रकृति के द्वारा बार-बार जन्म-मृत्यु रूपी संसार सागर में डुबाया जाता है।

जब व्यक्ति उन सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर भगवान के लिये उपयोग करता है तो वह व्यक्ति शीघ्र ही सभी कर्म बन्धन से मुक्त होकर भगवद-प्राप्ति रुपी परम-सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 24-03-2011

प्रत्येक मनुष्य को एक अच्छा शिष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये, अच्छा गुरु वही बन पाता है जो एक अच्छा शिष्य होता है।

व्यक्ति को कभी भी गुरु बनने का प्रयत्न नहीं करनी चाहिये, क्योंकि व्यक्ति का अज्ञान शिष्य बनकर ही मिट सकता है।

जिस व्यक्ति का अज्ञान मिट जाता है तो उस व्यक्ति में से ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगता है, तब वह एक दिन अच्छा गुरु स्वत: ही बन जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 23-03-2011


प्रत्येक व्यक्ति को सभी प्रकार की आसक्ति से बचने के उपाय करना चाहिये। 

जो व्यक्ति भगवान के नाम का निरन्तर गुणगान करते हैं केवल वही सभी प्रकार की आशक्ति और विपत्ति से बच पाते हैं।

जो व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्म करते हुए निरन्तर भगवान के नाम रुपी अमृत को निरन्तर पीते रहते हैं वह सभी प्रकार के सांसारिक भोगों को भोगते हुए भी सभी विषयों के विष से बचे रहते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 22-03-2011

जब मनुष्य की बुद्धि और मन एक ही दिशा में कार्य करतें है तब सारे भ्रम मिट जाते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री हमेशा अपने पति की आज्ञा का पालन करती है तो संसारिक गृहस्थ जीवन सुखमय होता है।

उसी प्रकार बुद्धि हमेशा मन की आज्ञा का पालन करे तो आध्यात्मिक जीवन आनन्दमय हो जायेगा।

आध्यात्मिक विचार - 21-03-2011


संसार एक धर्मशाला के समान है, हर व्यक्ति यहाँ यात्री है, व्यक्ति का शरीर इस धर्मशाला का कमरा है, यहाँ उपयोग की सभी वस्तुऎं धर्मशाला की हैं, इसलिये धर्मशाला की सभी वस्तुओं को व्यक्ति को अपना कभी नहीं समझना चाहिये, जो व्यक्ति स्वयं को यात्री समझकर सभी वस्तुओं का अनासक्त भाव से उपयोग करता है वह सभी सांसारिक बंधन से मुक्त रहता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का भली प्रकार से उपयोग करता है तो अगली बार उसे इस धर्मशाला में उच्च श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है, जो यात्री इस धर्मशाला की वस्तुओं का दुरुपयोग करता है तो उसे अगली बार निम्न श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का बिना किसी आसक्ति के उपयोग करता है तो वह सभी कर्म बंधन से मुक्त रहता है, उसे फिर इस धर्मशाला रूपी संसार में पुन: नहीं आना पड़ता है, तब वह अपने घर में पहुँचकर शाश्वत आनन्द प्राप्त करता है।

आध्यात्मिक विचार - 20-03-2011


जिस प्रकार जो वस्तु जहाँ पर होती है वहीं ढूंढने पर मिलती है उसी प्रकार सुख और शान्ति जहाँ पर है वहीं तलाश करनी चाहिये।

सुख और शान्ति प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं के अन्दर स्थित रहती है, लेकिन हर व्यक्ति अपना सारा जीवन सुख और शान्ति की तलाश में संसार में इधर-उधर भटकता रहता है।

संसार में दुख और अशान्ति के अलावा उसके हाथ अन्य कुछ नहीं आता है, जो दुख और अशान्ति को सहन कर लेता है वह उसे सुख और शान्ति समझ लेता है।

आध्यात्मिक विचार - 19-03-2011


प्रत्येक मनुष्य को अच्छा शिष्य बनने की कोशिश करनी चाहिये, अच्छा गुरु वही होता जो एक अच्छा शिष्य होता है।

कभी भी गुरु बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, जो एक अच्छा शिष्य बनता है वह एक दिन अच्छा गुरु स्वत: ही बन जाता है।

जब व्यक्ति गुरु बनने की कोशिश करता है तो उस व्यक्ति को त्रिशंकु की तरह न तो इस लोक में और न ही परलोक में शान्ति प्राप्त होती है।

आध्यात्मिक विचार - 18-03-2011

व्यक्ति जब तक पाप और पुण्य करता रहता है तब तक प्रकृति के तीनों गुणों के आधीन होकर जन्म और मृत्यु के बंधन में ही पड़ा रहता है।

पाप का फल दुख और पुण्य का फल सुख होता है, पाप का फल भोगने के किये संसार में आना पड़ता है तो पुण्य का फल भी भोगने के लिये भी संसार में आना ही पड़ता है।

जब व्यक्ति अपने सभी कर्मों के फलों को भगवान को सोंपने लगता है तब वह कर्म बन्धन से मुक्त होने लगता है।

आध्यात्मिक विचार - 17-03-2011

दानी के समान अन्य कोई सुन्दर हृदय वाला नहीं होता है, पृथ्वी पर लोभ के समान कोई अन्य शत्रु नहीं होता है, लज्जा के समान कोई आभूषण नहीं होता है और संतोष के समान अन्य कोई धन नहीं है।

आध्यात्मिक विचार - 11-03-2011


धर्म के अनुसार व्यवहार करना ही परमार्थ का मार्ग है, धर्म का आचरण न करने से व्यवहार और परमार्थ दोनों ही बिगड़ जाते हैं।

स्वयं की अवस्था को जानकर शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य-कर्म करना ही धर्म कहलाता है, धर्म का आचरण करना ही धर्माचरण कहलाता है।

जो व्यक्ति धर्म के अनुसार अपने कर्तव्य-कर्म का आचरण नहीं करता है, वह न तो संसार के प्रति व्यवहारिक होता है और न ही परमार्थ ही कर पाता है।

आध्यात्मिक विचार - 10-03-2011

भौतिक या आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले व्यक्ति को इन छः बुरी आदतों का सदैव त्याग करने का अभ्यास करना चाहिए।

१. अधिक निद्रा
२. जड़ता (मूढ़ता)
३. भय (चिन्ता)
४. क्रोध
५. आलस्य
६. कार्यों को टालने की प्रवृत्ति

आध्यात्मिक विचार - 09-03-2011


मन की केवल दो ही अवस्थाऎं होती है, मन एक समय में केवल एक अवस्था में ही रहता है।

पहली अवस्था में सभी का मन संसार में स्थित रहता है, इस मन को दूसरी अवस्था में यानि ईश्वर में स्थित रखने का अभ्यास करना चाहिये।

जब व्यक्ति मन को ईश्वर में लगाने का अभ्यास नहीं करता है तो व्यक्ति का मन स्वतः ही संसार में चला जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 08-03-2011


मनुष्य को अपनी शक्ति का उपयोग आवश्यकता के अनुसार करना चाहिये, इच्छा के अनुसार नहीं करना चाहिये।

प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि द्वारा जानने की, मन के द्वारा मानने की और इन्द्रियों के द्वारा करने की शक्ति प्रदान की है, यदि मनुष्य इस शक्ति का आवश्यकता के अनुसार उपयोग करता है तो आसानी से जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी दुखों से मुक्त हो सकता हैं।

साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष आवश्यकता के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य इच्छा के अनुसार कर्म करते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 07-03-2011

भक्ति-कर्म के द्वारा ही अनन्य भक्ति को प्राप्त किया जा सकता है।

एक भक्ति वह होती है जिसे किया जाता है और दूसरी भक्ति वह होती है जो भगवान की कृपा से प्राप्त होती है।

जो भक्ति की जाती है वह तो भक्ति रूपी कर्म होता है, और जो भक्ति भगवान की कृपा से प्राप्त होती है वह अनन्य-भक्ति होती है।

आध्यात्मिक विचार - 06-03-2011


सत्संग से वैराग्य उत्पन्न होता है, वैराग्य से मोह नष्ट होता है, मोह नष्ट होने पर  तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

आध्यात्मिक विचार - 05-03-2011


प्रत्येक जीव के ऊपर ईश्वर के दो ऋण हैं, एक आत्मा जो कि परमात्मा का ऋण है और दूसरा शरीर जो कि प्रकृति का ऋण है, इन ऋण से मुक्त होने के लिये ही ईश्वर ने सभी मनुष्यों को मन, बुद्धि और शरीर दिया है।

प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के हर पल को बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा को सोंपना है, और बुद्धि के द्वारा ही शरीर को प्रकृति को सोंपना है, जब तक व्यक्ति अपने गुरु से इन दोनों ऋणों से मुक्त होने की विधि जान नहीं लेता है तब तक कोई भी व्यक्ति इन दोनों ऋणों से मुक्त नहीं हो सकता है।

जब तक व्यक्ति इन ऋणों से मुक्त नहीं हो जाता है तब तक कोई भी व्यक्ति संसार चक्र से मुक्त नहीं हो सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 04-03-2011


वेद-शास्त्रों से भगवान को केवल जाना जाता है, लेकिन प्राप्त केवल भक्ति से ही किया जाता है।

इसलिये सभी वैदिक-कर्मों को भगवान को अर्पित करके, संसारिक हानि-लाभ कि चिन्ता न करके भगवान के आश्रित होकर कर्म करना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 03-03-2011

सत्य एक मात्र ईश्वर है, ईश्वर आत्मा रूप में सभी में स्थित है, और शास्त्रों में इस आत्मा की संगति करने की असंख्य विधियाँ बतायी गयी हैं।

प्रत्येक व्यक्ति के लिये केवल एक ही विधि है, जो व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुसार किसी भी एक विधि को जानकर दृड़ संकल्प के साथ उस विधि के अनुसार कार्य करता है, वह व्यक्ति शीघ्र ही ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 02-03-2011


भक्ति वह प्रेम स्वरूप है जिसे बताया नहीं जा सकता है बल्कि स्वयं ही अनुभव किया जा सकता है जिस व्यक्ति को भगवान का अनुभव हो जाता है उसमें भक्ति स्वयं प्रकाशित होने लगती है।

भक्ति को प्राप्त करके वह व्यक्ति कभी भी कुछ नहीं चाहता है, न किसी बात का शोक करता है, न किसी से घृणा करता है, न ही किसी संसारिक वस्तु में आसक्त होता है, और न किसी वस्तु का त्याग ही करता है।

आध्यात्मिक विचार - 01-03-2011


जो जगत से प्रेम करते हैं वह जन्म-मरण के भंवर में गोते खाते रहते हैं और जो केवल जगदीश से ही प्रेम करते हैं वह जन्म-मरण के चक्र से शीघ्र छूटकर परम-पद को स्वतः ही प्राप्त कर जाते हैं।