आध्यात्मिक विचार - 31-05-2011


एक साधु बनने की अपेक्षा, एक सच्चा गृहस्थ बनना अधिक श्रेष्ठ होता है।

सच्चे गृहस्थ के लिये आत्म-साक्षात्कार करना आसान होता है, क्योंकि सच्चे गृहस्थ में आत्म-नियंत्रण, आत्म-समपर्ण, सेवा का भाव और त्याग की भावना होती ही है।

जिस गृहस्थ में आत्म-नियंत्रण, आत्म-समपर्ण, सेवा-भाव और त्याग की भावना होती है, उसके घर में सभी देवी-देवताओं का निवास होता है, तब उस गृहस्थ का घर ही स्वर्ग बन जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 26-05-2011


संसार में प्रत्येक व्यक्ति अद्वैत जीवन-यापन करता है, प्रत्येक व्यक्ति को वास्तविक रूप से अद्वैत में ही जीवन-यापन करना चाहिये।

जब तक व्यक्ति अद्वैत जीवन को द्वैत जीवन में परिवर्तित करके पुनः अद्वैत जीवन-यापन नहीं करता है, तब तक व्यक्ति अज्ञान में ही जीवन-यापन करता हुआ पुनर्जन्म को प्राप्त होता है।

जो व्यक्ति अद्वैत जीवन को द्वैत जीवन में परिवर्तित करके पुनः अद्वैत जीवन में स्थित हो जाता है, वही व्यक्ति मुक्त जीवन-यापन करके सदा के लिये मुक्त हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 25-05-2011

जब तक व्यक्ति की बुद्धि इस अनित्य संसार को ही सत्य समझती रहती है, तब तक व्यक्ति अज्ञानी ही होता है।

जब व्यक्ति की बुद्धि इस अनित्य संसार को असत्य समझने लगती है, तभी व्यक्ति के अन्दर सत्य को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है।

आध्यात्मिक विचार - 21-05-2011

जब तक गुरु के प्रति दृढ़ श्रद्धा और गुरु की वाणी पर पूर्ण विश्वास नही होता है, तब तक भ्रम बना ही रहता है।

गुरु वह होता जिसे हर वक्त अपने शिष्यों के आध्यात्मिक उत्थान की चिन्ता रहती है, और शिष्य वह होता है जिसे गुरु की वाणी पर स्वयं से अधिक विश्वास होता है।

जब तक भ्रम बना रहता है, तब तक आध्यात्मिक पथ में प्रवेश असंभव होता है, भ्रम के मिटने पर ही ईश्वर की प्राप्ति संभव होती है।

आध्यात्मिक विचार - 20-05-2011

जब तक गुरु के द्वारा प्राप्त शब्दों का आचरण नहीं होता है, तब तक सदगुरु की प्राप्ति नहीं होती है।

सदगुरु की प्राप्ति के बिना किसी भी व्यक्ति को आध्यात्मिक पथ पर प्रवेश नही मिलता है, जब व्यक्ति गुरु के शब्दों पर पूर्ण विश्वास करके निरन्तर आचरण करता है तो एक दिन सदगुरु की प्राप्ति हो जाती है, तभी वह व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर प्रवेश कर पाता है।

गुरु संत स्वरूप होते है जो व्यक्ति को बाहरी रूप से क्रमशः "जीवन की उन्नति" के साथ आध्यात्मिक पथ पर पहुँचने का मार्ग बतलाते हैं, सदगुरु स्वयं भगवान ही होते हैं जो व्यक्ति के स्वयं के अन्दर स्थित होकर क्रमशः "मृत्यु की उन्नति" के साथ परमधाम का मार्ग बतलाते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 18-05-2011

आलसी व्यक्ति को कभी विद्या प्राप्त नही होती है, विद्याहीन व्यक्ति को कभी धन प्राप्त नही होता है, निर्धन मनुष्य का कभी कोई मित्र नहीं होता है और बिना मित्र के किसी भी व्यक्ति को सुख प्राप्त नहीं होता है।

आध्यात्मिक विचार - 17-05-2011


संसार में दो प्रकार के ब्रह्मज्ञानी सदगुरु होते हैं।
१.मौनी-ब्रह्मज्ञानी और २.वक्ता-ब्रह्मज्ञानी।

वक्ता-ब्रह्मज्ञानी संसार-सागर में व्याप्त सभी जीवात्माओं के उद्धार के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता हैं।

मौनी-ब्रह्मज्ञानी से संसार को विशेष लाभ नही होता है, वह केवल स्वयं के उद्धार में ही मग्न रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 16-05-2011


उत्साह व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ बल होता है, उत्साहित व्यक्ति के समान अन्य कोई बलवान नहीं होता है, लेकिन अति उत्साहित व्यक्ति के समान कोई निर्बल भी अन्य कोई नहीं होता है।

उत्साहित व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता है, और अति उत्साहित व्यक्ति अंहकार से ग्रसित होने के कारण निर्बल हो जाता है, निर्बल व्यक्ति के लिये संसार में कुछ भी सुलभ नहीं होता है।

आध्यात्मिक विचार - 15-05-2011

व्यक्ति जिस भावना से भगवान का भजन करता है, भगवान भी उस व्यक्ति को उसी भावना से भजन करते हैं।

व्यक्ति जिस भावना से अपनी कामना पूरी करने के लिये भगवान का स्मरण करता है, भगवान व्यक्ति की उसी भावना से कामनाओं की पूर्ति करते हैं।

ईश्वरीय कामनायें वर्तमान जीवन में ही पूर्ण हो जाती हैं, लेकिन सांसारिक कामनायें अगले जीवन में पूर्ण होती हैं, वर्तमान जीवन में जो भी सांसारिक इच्छायें पूर्ण होती हैं वह पिछले जीवन की कामनायें होती हैं।

आध्यात्मिक विचार - 14-05-2011

प्रत्येक व्यक्ति को वही कर्म करना चाहिये जैसा फल वह चाहता है।

प्रत्येक व्यक्ति कभी न मिटने वाले आनन्द को चाहता है लेकिन अज्ञानता के कारण क्षणिक सांसारिक सुख की इच्छा पूर्ति करने में ही लगा रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 11-05-2011

जब व्यक्ति स्वयं के मुख से कहे गये शब्दों को स्वयं सुनता है तब व्यक्ति के स्वभाव में सहजता से परिवर्तन होने लगता है।

जिस प्रकार हर व्यक्ति के शरीर के द्वारा जो भी कार्य होता है वह उसके स्वयं के लिये ही होता है, उसी प्रकार व्यक्ति वाणी से जो कर्म करता है वह भी उसी के लिये ही होता है।

जब व्यक्ति किसी के लिये अपशब्द कहता है तो वह वास्तव मे स्वयं को ही अपशब्द बोल रहा होता है।


आध्यात्मिक विचार - 10-05-2011


प्रत्येक मनुष्य को मृग तृष्णा से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिये।

जिस प्रकार हिरण कस्तूरी की तलाश में वन-वन भटकता रहता है जबकि कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है।

उसी प्रकार संसार में प्रत्येक व्यक्ति सुख और शान्ति की तलाश में इधर-उधर भटकता रहता है, जबकि सुख और शान्ति प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं के अन्दर होती है।

आध्यात्मिक विचार - 09-05-2011


शारीरिक सुख और धन-सम्पदा, और अच्छी संतति प्रारब्ध के अनुरूप ही प्राप्त होती है।

स्वस्थ शरीर, धन-सम्पत्ति, अच्छा पति या अच्छी पत्नी और अच्छी संतान की प्राप्ति प्रारब्ध पर ही निर्भर करती है, यदि प्रारब्ध में है तो वह मिलता ही है।

इसलिए मन को भगवान के चिंतन में आगे और सांसारिक व्यवहार के चिंतन में पीछे रखने का अभ्यास करना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 07-05-2011

जो जीवात्मा अपने स्वभाव को वृक्ष से गिरे सूखे पत्ते की तरह बना लेता है, वह शरीर में रहकर भी मुक्त रहती है।

जिस प्रकार वृक्ष से गिरे सूखे पत्ते को नहीं पता होता कि वायु उसे कब एक स्थान से ले जाकर न जाने किस स्थान पर ले जाती है, वह कभी विरोध नहीं करता है।

उसी प्रकार जो व्यक्ति न तो किसी का विरोध करता है और न ही किसी के विरोध करने से विचलित होता है, वही व्यक्ति जीवन मुक्त आनन्द को भोगकर परमगति को प्राप्त होत है।  

आध्यात्मिक विचार - 05-05-2011


संसार में शास्त्र ज्ञान के समान मन को पवित्र करने वाला अन्य कोई भी साधन नहीं होता है, लेकिन विज्ञान (आचरण) के बिना सम्पूर्ण संसार के ज्ञान का कोई महत्व नहीं होता है।

जो व्यक्ति शास्त्र ज्ञान को प्राप्त करने के बाद उस ज्ञान के अनुसार कर्म नहीं करता है, ऎसे व्यक्ति के लिये उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं होता है, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।

जो व्यक्ति शास्त्र ज्ञान के अनुसार ही कर्म करता है, वह शीघ्र परम-सिद्धि को प्राप्त कर परम-पद पर स्थित हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 04-05-2011


संसार एक धर्मशाला के समान है, हर व्यक्ति यहाँ यात्री है, व्यक्ति का शरीर इस धर्मशाला का कमरा है, यहाँ उपयोग की सभी वस्तुऎं धर्मशाला की हैं, इसलिये धर्मशाला की सभी वस्तुओं को व्यक्ति को अपना कभी नहीं समझना चाहिये, जो व्यक्ति स्वयं को यात्री समझकर सभी वस्तुओं का अनासक्त भाव से उपयोग करता है वह सभी सांसारिक बंधन से मुक्त रहता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का भली प्रकार से उपयोग करता है तो अगली बार उसे इस धर्मशाला में उच्च श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है, जो यात्री इस धर्मशाला की वस्तुओं का दुरुपयोग करता है तो उसे अगली बार निम्न श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का बिना किसी आसक्ति के उपयोग करता है तो वह सभी कर्म बंधन से मुक्त रहता है, उसे फिर इस धर्मशाला रूपी संसार में पुन: नहीं आना पड़ता है, तब वह अपने घर में पहुँचकर शाश्वत आनन्द प्राप्त करता है।

आध्यात्मिक विचार - 03-05-2011

जब व्यक्ति स्वयं के मुख से कहे गये शब्दों को स्वयं सुनता है तब व्यक्ति के स्वभाव में सहजता से परिवर्तन होने लगता है।

जिस प्रकार हर व्यक्ति के शरीर के द्वारा जो भी कार्य होता है वह उसके स्वयं के लिये ही होता है, उसी प्रकार व्यक्ति वाणी से जो कर्म करता है वह भी उसी के लिये ही होता है।

जब व्यक्ति किसी के लिये अपशब्द कहता है तो वह वास्तव मे स्वयं को ही अपशब्द बोल रहा होता है।

आध्यात्मिक विचार - 02-05-2011


संसार में कोई भी व्यक्ति शिष्य पद को प्राप्त किये बिना गुरु पद को प्राप्त नहीं कर सकता है।

प्रत्येक व्यक्ति को एक अच्छा शिष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये, अच्छा गुरु वही बन पाता है जो एक अच्छा शिष्य बनता होता है।

जब तक व्यक्ति को स्वयं की स्थिति का पता नहीं चल जाता है, तब तक प्रत्येक व्यक्ति को शिष्य पद पर ही स्थित रहना चाहिये, गुरु पद पर स्थित होने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 01-05-2011


ईश्वर के आश्रित होकर ईश्वर के लिये अपने नियत कार्य को करना ही ईश्वर की सच्ची साधना होती है, यही सभी वेदों का सार है।

प्रत्येक व्यक्ति को भगवान के आश्रय में रहकर, संसार की सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर, भगवान के लिये ही उपयोग करने की विधि को जानने का प्रयास करना चाहिये।

जो व्यक्ति इस विधि को जानकर कर्म करता है, वही भगवान की सच्ची भक्ति करता है, वही अपने जीवन को सार्थक कर पाता है, अन्य सभी तो अपने इस दुर्लभ जीवन को व्यर्थ करने में ही लगे रहते हैं।