॥ अमृत-वाणी - १८ ॥


जब जीव को आत्मा से साक्षात्कार होता है तब जीव में ब्रह्म-ज्ञान प्रकट होने लगता है।
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जो अपने मन की क्रियाशीलता पर ध्यान केन्द्रित रखता है, उसी का मन भगवान में स्थिर हो सकता है।
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स्वयं के उद्धार की शुद्ध मन से इच्छा तो करो, भगवान तो सभी जीवात्माओं का उद्धार करने के लिये तत्पर रहते है।
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जब तक विष (सांसारिक-सुख) को अमृत समझकर पीते रहोगे तब तक अमृत (आत्मिक-सुख) को प्राप्त नही कर पाओगे।
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जीव जिस भाव से परमात्मा को भजता (कामना करता) है, परमात्मा भी जीव को उसी भाव से भजता (कामना-पूर्ति करता) है।
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जीव मन से आत्मा को जानना चाहता है लेकिन बुद्धि से संसार को जानना चाहता है, इस भ्रम के कारण न तो आत्मिक-सुख और न ही सांसारिक-सुख भोग पाता है।
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मनुष्य शरीर रथ के समान है, इस रथ में घोंडे़ (इन्द्रियाँ), लगाम (मन), सारथी (बुद्धि) और रथ के स्वामी जीव (कर्ता-भाव) में और आत्मा (द्रृष्टा-भाव) में रहता है।
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जब तक जीव शरीर रुपी रथ को मन रुपी लगाम से बुद्धि रुपी सारथी के द्वारा चलाता रहता है, तब जीव जन्म-मृत्यु के बंधन में फ़ंसकर कर्मानुसार सुख-दुख भोगता रहता है।
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जब जीव का विवेक जाग्रत होता है तब मन रुपी लगाम को बुद्धि रुपी सारथी सहित आत्मा को सोंप देता है तब जीव द्रृष्टा-भाव में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।
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बुद्धि से मन रुपी लगाम को खींचकर नही रखोगे तो इन्द्रियाँ रुपी घोंडे, शरीर रुपी रथ को दौड़ाते ही रहेंगे, और अधिक दौड़ने पर शरीर रुपी रथ शीघ्र थक कर टूट जायेगा।
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जब जीव केवल अपने सुख की इच्छा करता है तब मनुष्य शरीर का दुरुपयोग ही करता है, और जब जीव केवल आत्मा के सुख की इच्छा करता है तभी मनुष्य शरीर का सदुपयोग होता है।
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मन में सद-विचार होंगे तो शरीर से सत्कर्म ही होगा और दुर्विचार होंगे तो शरीर से दुष्कर्म ही होगा, दूसरों के सुख की इच्छा करना सद-विचार होते है और अपने सुख की इच्छा करना दुर्विचार होते है।
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आत्मा बिन्दु (बूँद) के समान और परमात्मा सिन्धु (समुद्र) के समान है जिस प्रकार जो गुण समुद्र में है वही गुण समुद्र की बूँद में होता है उसी प्रकार आत्मा गुणों में परमात्मा के समान और मात्रा में परमात्मा से भिन्न है।
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जीव का मन और बुद्धि जब अलग-अलग दिशा में विचार करते हैं तो भ्रम उत्पन्न होने से मन अशान्त हो जाता है, और जब जीव का मन और बुद्धि एक ही दिशा में विचार करते हैं तो मन शान्त रहता है।
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बुद्धि सहित मन को संसार के कार्यों में लगाना भौतिक-कर्म होता है जो कि जन्म-मृत्यु का कारण बनता है, और बुद्धि सहित मन को भगवान के कार्यों में लगाना आध्यात्मिक-कर्म (भक्ति-कर्म) होता है।
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