मनुष्य जीवन केवल भगवान की कृपा-पात्रता हासिल करने के लिये मिलता है।
सांसारिक वस्तुओं की और सांसारिक सुखों की प्राप्ति प्रत्येक व्यक्ति के प्रारब्ध पर निर्भर करती है, लेकिन एक क्षण के सत्संग की प्राप्ति भगवान की कृपा पर निर्भर करती है।
जब व्यक्ति को निरन्तर सत्संग करते करते अपनी शारिरिक और मानसिक क्रिया में स्वयं के ही दोष दिखलाई देने लगें, मन में पश्चाताप होने लगे, और आँखों से स्वतः अश्रुपात होने लगे, तभी समझना चाहिये, भगवान की कृपा पात्रता हासिल हुई है।