॥ अमृत-वाणी - २३ ॥


भक्ति वह प्रेम स्वरूप है जिसे बताया नहीं जा सकता है बल्कि स्वयं ही अनुभव किया जा सकता है जिनको भगवान का अनुभव हो जाता है उनमें भक्ति स्वयं प्रकाशित होती है ।
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भक्ति प्राप्त करके, मनुष्य न कभी और कुछ चाहता है, न ही शोक करता है, न घृणा करता है, न ही किसी वस्तु में रमता है, वह अन्य विषयों की तरफ उत्साह रहित हो जाता है।
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भगवान का अनुभव हुए बिना किया प्रेम साधारण-भक्ति ही होती है, ऎसा निश्चय हो जाने के बाद भी शास्त्रों में बताये कर्मों को करना चाहिये, वरना पतन होने की आशंका रहती है।
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भक्ति को प्राप्त करने वाला सांसारिकता को भी निभाता रहता है क्योकि स्नान, भोजन आदि जितने भी इस शरीर से जुड़े कर्तव्य कर्म हैं वे सब शरीर धारण किये हुओं को करने ही पड़ते हैं।
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ईश्वर में ही अनन्य भाव, और इसके विरुद्ध विषयों के प्रति उदासीनता, संसारिक और वेदिक कर्म जो भक्ति के अनुकूल हों उनका आचरण करना और उसके विरुद्ध विषयों में उदासीन हो जाता है।
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वेद-शास्त्रों से भगवान को केवल जाना जा सकता है, लेकिन प्राप्त केवल भक्ति से ही किया जा सकता है, इसलिये सभी वैदिक कर्मों को भगवान को अर्पित करके, संसारिक हानि कि चिन्ता मत करो।
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भगवान की अनन्य-भक्ति केवल भगवान की कृपा से ही मिल पाती है, जब तक अनन्य भक्ति प्राप्त न हो जाये तब तक कर्म तो करना ही पडता है, भक्ति के प्राप्त होने पर ही वास्तविक ज्ञान स्वयं प्रकट होता है।
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जब तक भगवान की कृपा प्राप्त नही होती है, तब तक सभी अज्ञान में ही रहकर कर्म में ही प्रवृत रहते है लेकिन कृपा प्राप्त होते ही ज्ञान स्वयं प्रकट हो जाता है, तभी मनुष्य शुद्ध-भक्ति में स्थिर हो पाता है।
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प्रसन्नता पूर्वक अपमान सहन करने से और नम्रता धारण करने से अहंकार मिट जाता है।
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कोई भी मनुष्य न तो खाली हाथ इस संसार में आता है और न ही खाली हाथ इस संसार से जाता है।
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जन्म और मृत्यु संस्कारों पर आधारित होती है और संस्कारों का उत्पन्न न होना ही मुक्ति है।
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मनुष्य पुराने संस्कारों को भोगने के लिये संसार में आता है और नये संस्कारों को साथ लेकर संसार से चला जाता है।
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संस्कारो की उत्पत्ति सकाम-भाव से कर्म करने से होती है और निष्काम-भाव से कर्म करने से संस्कारो की उत्पत्ति कभी नही होती है।
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भगवान को याद करने से वास्तविक संपत्ति जमा होती है और भगवान को भूल जाने से विपत्तियाँ ही जमा होती है।
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अपने अन्दर सत्य के प्रकाश को सदा प्रकाशित रखोगे तो क्रोध, भय और लोभ रूपी अन्धकार तुम्हारे पास कभी नहीं आ पायेंगे।
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कामनाओं की पूर्ति का होना ही कामनाओं का अन्त है लेकिन कामनाओं की पूर्ति होने पर यह अवश्य ध्यान रहे कि नई कामनाओं का जन्म न होने पाये।
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॥ अमृत-वाणी - २२ ॥


जो मनुष्य उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है, संत तुलसीदास जी कहतें हैं श्री हरि के दास श्री हरि से भी बढ़कर होते हैं।
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श्री हरि की भक्ति द्वारा ही वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी शत्रुओं को मारकर विजय को प्राप्त किया जा सकता है।
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श्री हरि की भक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में भी दुःख नहीं होता है, जगत में वे ही मनुष्य विद्वानों के शिरोमणि हैं जो उस मणि को पाने का प्रयत्न करते हैं।
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श्री हरि समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ है, श्री हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं, सब साधनों का फल सुंदर हरि भक्ति ही है, उसे संतो की संगति करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
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भक्ति रूपी मणि के प्रकाश से अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास कभी नहीं जा पाते हैं, मद, मत्सर आदि पतंगों का सारा समूह हार जाता है।
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जिसके हृदय में भक्ति बसती है, उसके लिए विष, अमृत बन जाता है और शत्रु, मित्र बन जाता है, बड़े से बड़े मानसिक रोग भी उसको कोई हानि नहीं पहुँचा पाते हैं, जिनके कारण सभी मनुष्य दुःखी होते है।
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भक्ति रूपी मणि तो उस दीपक के समान होती है, जिसे लोभ रूपी हवा कभी बुझा नहीं सकती है, उस मणि को किसी अन्य की सहायता की अवश्यकता नही होती है क्योंकि यह मणि स्वयं प्रकाशित होती है।
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संत पुरूष वेद-पुराण रूपी पर्वतों में से, श्री हरि की कथा रूपी सुंदर खानों में से, ज्ञान और वैराग्य रूपी दो नेत्रों से तलाश करके, बुद्धि रूपी कुदाल से, भक्ति रूपी मणि को निकाल कर हृदय में धारण कर लेते हैं।
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संत पुरूष वेद-पुराण रूपी समुद्र से, वैराग्य रूपी मंदराचल को मथानी बनाकर, काम, क्रोध, लोभ रूपी असुरों और धैर्य, क्षमा, संयम रूपी देवताओं द्वारा मोह रूपी वासुकि नाग की रस्सी से मथ कर कथा रूपी अमृत को निकाल कर पीतें है।
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भक्ति तो भगवान का परम-प्रेम स्वरूप है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य शुद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, आनन्दमय हो जाता है, पूर्ण-तृप्त हो जाता है।
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भक्ति प्राप्त हो जाने पर मनुष्य के मन में कोई भी सांसारिक कामनायें नहीं रहतीं हैं क्योकि भक्ति सांसारिक कर्मों और वैदिक कर्मों से श्रेष्ठ होती है।
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भक्ति, कर्म-योग और ज्ञान-योग से अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि कर्म-योग और ज्ञान-योग दोनों में भक्ति का आचरण करने पर ही भक्ति रूपी परम-फ़ल प्राप्त होता है।
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भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य आनन्दित हो जाता है, संसार के प्रति उदासीन हो जाता है, एकान्त पसन्द हो जाता है और अपने आप में ही सन्तुष्ट रहता है।
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भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य केवल भगवान को ही देखता है, भगवान को ही सुनता है, भगवान के बारे में ही बोलता है और भगवान का ही चिन्तन करता है।
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भगवान पर अपना सब छोड़ देना, भगवान को भूल जाने पर परम व्याकुल हो जाना और भगवान के आनन्द में ही आनन्दित होना ही शुद्ध-भक्ति का लक्षण हैं।
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