आध्यात्मिक विचार - 30-04-2011

किसी बात का बुरा लगना या क्रोध का आना मिथ्या अहंकार से ग्रसित होने का लक्षण होता है।

हर व्यक्ति अपने अंहकार को स्वयं पहचान सकता है, जब भी किसी के भी द्वारा कही गयी बात बुरी लगती है या क्रोध आता है, चाहे वह क्रोध बाहर प्रकट न होकर केवल स्वयं के अन्दर भी रहता है तब तक व्यक्ति मिथ्या अहंकार से ग्रसित रहता ही है।

जब किसी भी बात का बुरा लगना समाप्त हो जाता है तो क्रोध आना भी समाप्त हो जाता है, तभी समझना चाहिये कि अब मिथ्या अहंकार मिट गया है, तभी व्यक्ति शाश्वत अहंकार में स्थित हो पाता है।

आध्यात्मिक विचार - 29-04-2011

व्यक्ति के मन के दुःख का कारण छः विकार (कामना, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर) होते हैं, लेकिन इन सब विकारों की जननी मात्र कामना होती है।

व्यक्ति की कामना पूर्ति में व्यवधान होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मद (अहंकार) उत्पन्न होता है, अहंकार से लोभ उत्पन्न होता है, लोभ से मोह उत्पन्न होता है, मोहग्रस्त होने के कारण मत्सरता (शत्रुता का भाव) उत्पन होता है।

कामनाओं का अन्त कभी भी सीधे नहीं हो सकता है, मत्सरता के त्याग से मोह का त्याग होता है, मोह के त्याग से लोभ का त्याग होता है, लोभ के त्याग से अहंकार का त्याग होता है, अहंकार के त्याग से क्रोध का त्याग होता है, क्रोध का त्याग हो जाने पर कामनाओं का अन्त स्वतः ही हो जाता है।

जो व्यक्ति इस विधि को क्रमशः अपनाता है वह शीघ्र ही परम-सिद्धि को प्राप्त कर पाता है।  

आध्यात्मिक विचार - 28-04-2011


संतोष अमृत के समान होता है, असंतोष विष के समान होता है।

संतोष आनन्द स्वरूप परमात्मा की ओर आकर्षित करता है, असंतोष विष स्वरूप विषय भोगों की ओर आकर्षित करता है।

संतुष्ट स्वभाव वाला व्यक्ति ही आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर अमर हो जाता है, असंतुष्ट स्वभाव वाला व्यक्ति पुनर्जन्म को प्राप्त होकर विषय भोगों में ही लिप्त रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 27-04-2011

जब तक व्यक्ति माया को पकड़ने के लिये माया के पीछे दौड़ता रहता है तब तक माया आगे-आगे चलती रहती है, वह पकड़ में नहीं आती है।

जब व्यक्ति माया का पीछा छोड़कर माया के पति के पीछे दौड़ने लगता है तब माया उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चलने लगती है।

माया तो एक पतिव्रता स्त्री है, वह उसी को प्रेम करती है जो उसके पति को प्रेम करता है, तब वह योगमाया का रूप धारण करके अपने पति से योग (मिलन) करा देती है।

आध्यात्मिक विचार - 26-04-2011

आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को पाने की कामनायें ही व्यक्ति को पाप कर्म की ओर धकेलती है।

कभी भी आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु को पाने की कामना नहीं करनी चाहिये, आवश्यकतायें तो आसानी से पूर्ण हो जाती हैं लेकिन कामनायें कभी शान्त नहीं हो पाती हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को सबसे पहले अपनी आवश्यकता को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिये, कामनायें केवल संतुष्टि के भाव से ही शान्त हो पाती हैं।

आध्यात्मिक विचार - 25-04-2011


आध्यात्मिक पथ पर प्रवेश चाहने वाला व्यक्ति जब तक स्वयं को शरीर समझता रहता है, तब तक उस व्यक्ति को आध्यात्मिक पथ पर प्रवेश ही नहीं मिलता है।

आध्यात्मिक पथ पर प्रवेश चाहने वाला व्यक्ति जब स्वयं की पहिचान बाहरी स्वरूप शरीर से न करके अपने आन्तरिक स्वरूप जीवात्मा के रूप में करने लगता है, तभी उसकी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ हो पाती है।

व्यक्ति का शरीर दीपक के समान होता है, आत्मा ज्योति के समान होती है और परमात्मा परम-ज्योति स्वरूप हैं। एक दीपक कभी भी दूसरे दीपक में नहीं मिल सकता है, लेकिन एक ज्योति दूसरी ज्योति में मिल सकती है।  

आध्यात्मिक विचार - 24-04-2011


जिस प्रकार किसी भी व्यक्ति को उसके रंग-रूप, वाणी या पहनावा से नही जाना जा सकता है, केवल स्वभाव से ही जाना जा सकता है।

उसी प्रकार साधु और संतों को भी उनके रंग-रूप, वाणी या पहनावा से नही जाना जा सकता है, केवल रहन-सहन और उनके स्वभाव से ही जाना जा सकता है।

साधु वह होता है, जिसने शरीर को साधन बनाकर साधना द्वारा एक मात्र परमतत्व-परमात्मा को साध लिया है और संत वह होता है जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त हो चुकी हैं।

आध्यात्मिक विचार - 23-04-2011

कर्म के सिद्धान्त के अन्तर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को क्रम-क्रम से चलकर निष्काम भाव से पालन करना ही भगवान की सच्ची भक्ति कहलाती है।

जो व्यक्ति शरीर में रहते हुए स्वयं को सभी कर्म बन्धन से मुक्त अनुभव कर लेता है, और जीवन की अन्तिम श्वाँस तक मुक्त भाव में स्थिर रहता है, केवल वही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होता है।

जो जीवात्मा मनुष्य जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करके इस संसार में फ़िर कभी लौटकर नही आती है, वह जीवात्मा भगवान के परम-धाम में नित्य शाश्वत जीवन को प्राप्त कर भगवान के साथ नित्य रमण करती है।

आध्यात्मिक विचार - 22-04-2011

संसार में जो कुछ भी अभी तक हुआ है, जो कुछ भी हो रहा है और जो कुछ भी आगे होगा, वह सब भगवान के पूर्व निर्धरित संकल्प से ही होता है।

व्यक्ति जिस भाव से देखता है, सुनता है, स्पर्श करता है, उसी भाव के अनुसार व्यक्ति का वर्तमान में कर्म होता है।

व्यक्ति जैसा कर्म करता है वैसा ही व्यक्ति का प्रारब्ध बनता है और वैसा ही अगले जन्म में पद की प्राप्ति होती है।

आध्यात्मिक विचार - 21-04-2011


जब तक व्यक्ति अपने शरीर से अपनी पहचान करता है तब तक व्यक्ति का ज्ञान अज्ञान से आवृत रहता है।

जब व्यक्ति शरीर से अपनी पहचान भूलने का अभ्यास करता हैं तब वह व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर आगे चलने लगता है, तभी व्यक्ति का अज्ञान का आवरण स्वतः ही हटने लगता है।

जब व्यक्ति के अज्ञान का आवरण हट जाता है तो व्यक्ति का ज्ञान सूर्य के समान प्रकाशित होने लगता है, अज्ञान का आवरण हटना ही मुक्ति है।

आध्यात्मिक विचार - 20-04-2011


वेद और शास्त्रों के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के लिये स्वयं भगवान ने आदेश दिया है, भगवान के आदेश का उलंघन करके संसार में कोई भी मनुष्य सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है।

शास्त्रों में से हर व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार भगवान की आज्ञा को जानने का प्रयत्न गुरु से करना चाहिये, क्योंकि हर व्यक्ति का कर्तव्य कर्म अलग-अलग होते हैं।

शास्त्रों को अधिक पढ़ने या जानने से भ्रम ही उत्पन्न होता है, इसलिये गुरु की शरण होकर विश्वास के साथ स्वयं के लिये शास्त्रों के आदेश को जानकर ही कर्तव्य का पालन करने से ही पाप कर्मों से बचा जा सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 19-04-2011

मन की केवल दो ही स्थिति होती है, एक समय में मन एक ही स्थिति में रह पाता है।

एक स्थिति में मन संसार में स्थित रहता है और दूसरी स्थिति में ईश्वर में स्थित रह सकता है।

जब व्यक्ति अपने मन को भगवान में स्थित नहीं करता है तो उस व्यक्ति का मन संसार में स्वतः ही स्थित रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 09-04-2011

संसार में जो कुछ भी अभी तक हुआ है, जो कुछ भी हो रहा है और जो कुछ भी आगे होगा, वह सब भगवान के पूर्व निर्धरित संकल्प से ही होता है।

जो व्यक्ति जिस भाव से देखता है, सुनता है, बोलता है, सूंघता है, स्पर्श करता है, उसी प्रकार के विचार मन में उत्पन्न होते हैं।

जैसे विचार मन में उत्पन्न होते हैं वैसा ही व्यक्ति द्वारा वर्तमान में कर्म होता है और वैसा ही अगले जन्म में फल रूप में प्राप्त होगा।

आध्यात्मिक विचार - 08-04-2011


मन से निरन्तर परमात्मा का चिंतन और तन से निरन्तर "नियत-कर्म" करने वाले को शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

तन से निरन्तर नियत-कर्म करने से पूर्व जन्मों के संस्कारों से उत्पन्न कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है।

मन से निरन्तर परमात्मा के चिंतन से नये संस्कारों की उत्पत्ति नहीं होती है, संस्कारों का न बनने से नये कर्म-बन्धन से मुक्ति मिलती है।

आध्यात्मिक विचार - 07-04-2011

जब तक व्यक्ति का गुरु के शब्दों पर श्रद्धा के साथ विश्वास स्थिर नहीं हो जाता है तब तक व्यक्ति का भ्रम दूर नहीं होता है।

जब व्यक्ति गुरु के शब्दों पर विश्वास करके आचरण करता है तो शीघ्र ही व्यक्ति का अज्ञान दूर होने लगता है।

व्यक्ति का अज्ञान दूर होते ही ज्ञान स्वतः ही प्रकट होने लगता है, ज्ञान के प्रकट होने पर ही भ्रम दूर हो पाता है।

आध्यात्मिक विचार - 06-04-2011


जो व्यक्ति निरन्तर सत्संग यानि सत्य की संगति यानि प्रभु का चिंतन नहीं करता है तो असंग यानि असत्य की संगति यानि सांसारिक चिंतन स्वतः ही होने लगता हैं।

जब व्यक्ति निरन्तर सत्संग करता है तब उस व्यक्ति को स्वयं के वास्तविक स्वरूप का बोध होने लगता है।

जब तक व्यक्ति को स्वयं के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होता है तब तक सांसारिक आसक्ति से छूट पाना असंभव होता है।

आध्यात्मिक विचार - 05-04-2011


मन की केवल दो ही अवस्थाऎं होती है, एक समय में मन केवल एक अवस्था में ही रह सकता है।

मन की पहली अवस्था ईश्वर में स्थिति होती है और दूसरी अवस्था संसार में स्थिति होती है।

व्यक्ति को अपने मन को पहली अवस्था में यानि ईश्वर में स्थित करने का प्रयास करना चाहिये, नहीं तो मन दूसरी अवस्था यानि संसार में स्वतः ही चला जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 04-04-2011


किसी भी व्यक्ति के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयत्न कभी नहीं करना चाहिये।

संसार में कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन नहीं कर सकता है, जब तक कि व्यक्ति स्वयं बदलने की इच्छा करके बदलने का अभ्यास न करे।

स्वभाव परिवर्तन से कर्म परिवर्तित हो जाता है और कर्म के परिवर्तन से कर्म-फल स्वतः ही परिवर्तित हो जाते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 03-04-2011


जो व्यक्ति जैसा चिंतन करता है वैसे ही गुण-दोष उस व्यक्ति में स्वतः ही प्रवेश कर जाते हैं।

जब व्यक्ति किसी की निन्दा करता है तब दोष स्वतः ही उस व्यक्ति में प्रवेश कर जाते हैं और जब व्यक्ति किसी की स्तुति करता है तब गुण स्वतः ही उस व्यक्ति में प्रवेश कर जाते हैं।

जब व्यक्ति भगवान की स्तुति करता है तब भगवान के गुण उस व्यक्ति में स्वतः ही प्रवेश कर जाते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 02-04-2011


हर व्यक्ति के लिये दूसरों की हित की कामना करना और भगवान को निरन्तर याद करते रहना यह दो कर्म ही व्यक्ति को मनुष्य बनाते हैं।

यदि कोई व्यक्ति यह दो कर्म नहीं करता हैं तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता है, बल्कि ऎसा व्यक्ति मनुष्य शरीर में पशु-पक्षीयों के समान ही होता है।

आध्यात्मिक विचार - 01-04-2011


प्रत्येक व्यक्ति को भ्रम के मिटने की बिधि को जानने का प्रयत्न करना चाहिये।

भ्रम के कारण हम सभी समझते हैं कि हम माया का भोग कर रहे हैं जबकि माया ही जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है।

भ्रम के मिटने की सबसे आसान बिधि जीवन के हर क्षण में मायापति की शरण में रहकर कर्म करना ही है, भ्रम का मिटना ही मुक्ति है।