आध्यात्मिक विचार - 28-02-2011

कोई भी व्यक्ति न तो खाली हाथ इस संसार में आता है और न ही खाली हाथ इस संसार से जाता है।

जन्म और मृत्यु संस्कारों पर आधारित होती है और संस्कारों की उत्पत्ति कर्म से होती है, और कर्म के द्वारा ही संस्कारों से मुक्त हुआ जा सकता है, संस्कारों का उत्पन्न न होना ही मुक्ति है।

मनुष्य पुराने संस्कारों को साथ लेकर संसार में आता है और नये संस्कारों को साथ लेकर संसार से चला जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 27-02-2011

भगवान समुद्र के समान हैं तो संत पुरुष मेघ के समान होते हैं, भगवान चंदन के वृक्ष के समान हैं तो संत पुरुष पवन के समान होते हैं।

सभी साधनों का फल भगवान की भक्ति ही है, उसे संत पुरुषों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।

जो व्यक्ति धैर्य और विश्वास के साथ निरन्तर संत पुरुषों की संगति करता है, उसे एक दिन भगवान की भक्ति की प्राप्ति हो ही जाती है।

आध्यात्मिक विचार - 26-02-2011

भगवान की भक्ति सांसारिक वैराग्य की ढाल से स्वयं को बचाते हुए और ज्ञान की तलवार से काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह जैसे सबसे प्रबल शत्रुओं को मारकर ही प्राप्त की जा सकती है।

आध्यात्मिक विचार - 25-02-2011

मन से भगवान को केवल अपना समझना, भगवान पर अपना सब कुछ छोड़ देना, एक क्षण भी भगवान को भूल जाने पर अधीर हो जाना और भगवान की खुशी को अपनी खुशी समझना ही शुद्ध-भक्ति हैं।

इस अवस्था में किये जाने वाला कोई भी कार्य संसारिक बन्धन उत्पन्न नहीं कर पाता है। 

आध्यात्मिक विचार - 24-02-2011

संसार में सभी कर्मों का सर्वोच्च फल भगवान की भक्ति है।

जिस व्यक्ति को भक्ति फल प्राप्त हो जाता है, वह व्यक्ति पूर्ण ज्ञानी हो जाता है, आनन्दित हो जाता है, संसार के प्रति उदासीन हो जाता है, एकान्त पसन्द हो जाता है।

वह व्यक्ति अपने स्वयं में ही सन्तुष्ट रहकर निरन्तर भक्ति-अमृत का पान करता रहता है, और सभी पर भक्ति-अमृत लुटाता रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 23-02-2011

संत पुरूष वेद-पुराण रूपी समुद्र से, वैराग्य रूपी मंदराचल को मथानी बनाकर, काम, क्रोध, लोभ रूप असुरों और धैर्य, क्षमा, संयम रूप देवताओं द्वारा मोह रूपी वासुकि नाग की रस्सी से मथ कर कथा रूपी अमृत को निकाल कर पीतें रहते है।

आध्यात्मिक विचार - 22-02-2011

भक्ति रूप मणि तो स्वयं ज्ञान से प्रकाशित होती है, जिसको कामना रूप अन्धकार की छाया कभी भी स्पर्श नही कर पाती है, इस मणि के बिना ज्ञान का प्रकाश असंभव है।

आध्यात्मिक विचार - 21-02-2011

भगवान की भक्ति रूप मणि तो स्वयं धन-रूप है, जिसके कारण मोह रूपी दरिद्रता उसके समीप कभी नहीं आ पाती है, इस मणि के बिना कोई कभी सुखी नहीं रह सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 20-02-2011


प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के प्रति ईमानदार रहना चाहिये, स्वयं के प्रति ईमानदारी का अर्थ है, जहाँ व्यक्ति का तन हो वहीं मन भी होना चाहिये।

जिस व्यक्ति के तन और मन एक ही दिशा में कार्य करते हैं, वह व्यक्ति स्वयं के प्रति ईमानदार होता है, और जिस व्यक्ति शरीर तो कहीं है और मन कहीं ओर रहता है ऎसा व्यक्ति स्वयं के प्रति बेईमानी करता रहता है।

जो व्यक्ति स्वयं के प्रति ईमानदारी नहीं बरतता है, वह व्यक्ति इस संसार में स्वयं के द्वारा ही ठगा जाता है, और संसार को दोषी मानकर स्वतः ही अपने पतन के मार्ग की ओर चला जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 19-02-2011


प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के गुण और दोषों को स्वत: ही ग्रहण करता है।

जब व्यक्ति दूसरों की निन्दा करते हुए उनके दोषों का चिन्तन करते है तो दूसरो के दोष उस व्यक्ति में स्वत: ही प्रवेश कर जाते है।

जब व्यक्ति दूसरों की प्रशंसा करते हुए उनके गुणों का चिंतन करते हैं तो दूसरों के गुण उस व्यक्ति में स्वत: ही प्रवेश कर जाते है।

आध्यात्मिक विचार - 18-02-2011

भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति सभी चिंताओं को हरने वाली एक अत्यन्त सुन्दर मणि है।

जो व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को अपने हृदय में धारण करता है तो उसे भगवान की कृपा से संतों का संग प्राप्त होता है।

जब वह व्यक्ति संतो की निरन्तर संगति करता है तो उसे यह मणि सुलभता से प्राप्त हो जाती है।

आध्यात्मिक विचार - 17-02-2011

भक्ति-कर्म से ही भक्ति मार्ग की प्राप्ति होती है।

जब तक व्यक्ति के मन में किसी के भी प्रति ईर्ष्या रहती है और वाणी किसी की निन्दा करती है तब तक यह समझना चाहिये कि अभी भक्ति-कर्म अभी आरम्भ नही हुआ है।

तब तक व्यक्ति के मन में भक्ति के नाम से अन्य कोई खेल चल रहा होता है और अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा होता है।

आध्यात्मिक विचार - 16-02-2011

यदि व्यक्ति का मन सभी के कल्याण के लिये द्रवित होकर आँखो से अश्रु रूप में बहने लगता है और हृदय परमार्थ की भावना से ओत-प्रोत हो जाता है, तब उस व्यक्ति का तन भगवान एक पावन मंदिर बन जाता है।

ऎसे व्यक्ति के तन रूपी मन्दिर में ही आनन्द स्वरूप भगवान प्रकट होते हैं।  

आध्यात्मिक विचार - 15-02-2011


एक सच्चे गृहस्थ को आत्म साक्षात्कार करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।

यदि कोई सच्चा गृहस्थ है तो उसका घर स्वर्ग बन जाता है, क्योंकि सच्चे गृहस्थ में आत्म-नियंत्रण, आत्म-समपर्ण सेवा-भाव और त्याग की भावना होती है।

एक साधु बनने की अपेक्षा, एक सच्चा गृहस्थ बनना अधिक श्रेष्ठ होता है।

आध्यात्मिक विचार - 14-02-2011

जो व्यक्ति इस मानव शरीर में परम-ब्रह्म को जानने का प्रयत्न करता है केवल वही बुद्धिमान व्यक्ति कहलाने योग्य होता है।

ऎसे बुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक जीव मात्र में परम-ब्रह्म को देखते हुए इस मनुष्य शरीर का त्याग करके जाते हैं, वह संसार में अमरता को प्राप्त करते हैं।

ऎसे बुद्धिमान व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटकर अमृत-तत्व को प्राप्त कर भगवान के परम-धाम को प्राप्त हो जाते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 13-02-2011

भक्ति तो भगवान परम-प्रेम स्वरूप है जिसे शब्दों में न तो बताया जा सकता और न ही शब्दों से समझा जा सकता है।

जिस व्यक्ति को भक्ति प्राप्त को जाती है तो वह व्यक्ति भगवान को ही देखता है, भगवान को ही सुनता है, भगवान के बारे में ही बोलता है।

आध्यात्मिक विचार - 12-02-2011

भगवान के प्रति निर्मल-चित्त, दृड़-श्रद्धा और सच्ची-आस्था होने पर भजन स्वयं होने लगता है।

व्यक्ति का सम्पूर्ण विश्वास जब तक भगवान में नहीं होता है तब तक न तो चित्त निर्मल होता है और न ही श्रद्धा दृड़ हो पाती है।

भजन सदैव गोपनीय होता है भजन के लिये किसी भी बाह्य आडंबर करने की आवश्यकता नही होती है।

आध्यात्मिक विचार - 11-02-2011

सच्चा भक्त भक्ति में सिद्ध हो जाने पर लोक व्यवहार का कभी त्याग नहीं करता है।

भक्ति में भक्त स्वयं को बुद्धि सहित मन को भगवान को अर्पित करके सिद्ध हो जाने पर सभी आसक्तियों का त्याग करता है लेकिन सांसारिक सामाजिक व्यवहार का त्याग कभी नही करता है।

आध्यात्मिक विचार - 10-02-2011

भगवान की भक्ति तो परम-प्रेम रूप, अमृत स्वरूप है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य तृप्त हो जाता है, सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति के लिये भगवान की भक्ति तो विशुद्ध प्रेम स्वरूप होती है, जिसे प्राप्त करके व्यक्ति परम-पद पर स्थिर हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 09-02-2011

भगवान को प्राप्त करने के लिए पूर्ण निष्ठा भाव से वही मार्ग चुनना चाहिए, जो स्वयं को अच्छा लगे।

"श्रीमद भगवद गीता" के अनुसार भगवान को प्राप्त करने के "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" केवल दो ही मार्ग है।

जिस व्यक्ति को जो भी मार्ग अच्छा लगे वह उस मार्ग को चुन सकता है, भगवान तो दोनो मार्गों से सहज सुलभ ही हैं।

आध्यात्मिक विचार - 08-02-2011

भगवान के भक्त का व्यवहार सदैव सभी के प्रति मन से मधुर, वचन से मधुर और शरीर से मधुर ही होता है।

जिस व्यक्ति के मन में भगवान से निरन्तर प्रीत बनी रहती है उस व्यक्ति के मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द हीरे-मोती के समान होता है, और उसके शरीर से होने वाले कार्य सभी के लिये कल्याणकारी होता है।

आध्यात्मिक विचार - 07-02-2011

गृहस्थ को मन से उदार होना चाहिये और साधु को मन से विरक्त होना चाहिये है।

जो गृहस्थ व्यक्ति मन से उदार होता है और तन से परमार्थ कार्य करता है, ऎसा व्यक्ति एक सच्चे सन्यासी के समान ही होता है।

जो व्यक्ति तन से सन्यास धारण करता है और मन से संसार के चिंतन में मग्न रहता है ऎसा व्यक्ति पाखंडी होता है।

आध्यात्मिक विचार - 06-02-2011


स्वयं के हित का त्याग होने पर ही अभिमान का त्याग होता है।

कोई भी व्यक्ति तब तक किसी को सच्चा सुख नही दे सकता है और न ही किसी से सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है जब तक वह स्वयं के हित का त्याग मन से नहीं नही कर देता है।

अभिमान का त्याग हो जाने पर ही भगवान की भक्ति प्राप्त होती है।

आध्यात्मिक विचार - 05-02-2011


आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश से ही अज्ञान रूप अन्धकार मिट सकता है।

जिस प्रकार संसार का अंधकार सूर्य के प्रकाश से दूर होता है, उसी प्रकार जीवात्मा का अज्ञान रुप अन्धकार आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश से ही दूर हो सकता है।

जब व्यक्ति की जिज्ञासा भौतिकता से आध्यात्मिकता में परिवर्तित होती है, तभी व्यक्ति के जीवन में भौतिक ज्ञान रूप अन्धकार हटकर आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश सूर्य के समान प्रकाशित होने लगता है।

आध्यात्मिक विचार - 04-02-2011


मुक्त जीवन जीने वाले ही मुक्ति को प्राप्त हो पाते हैं। 

जो व्यक्ति सहज-भाव से सभी कार्यों को करते रहते हैं, कुछ भी पाने की चाहत और किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करते हैं, केवल वही मुक्त जीवन जीते हैं।

मुक्ति मनुष्य शरीर में रहकर ही प्राप्त होती है, इसलिये आज से ही सहज-भाव में जीने का अभ्यास करना अभी से शुरु कर देना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 03-02-2011

संसार में कामना, क्रोध और लोभ मनुष्य के तीन प्रमुख शत्रु होते है, इनके अतिरिक्त अन्य कोई शत्रु नहीं होता है।

व्यक्ति को इन तीन मुख्य दुश्मनों को जीतने का प्रयत्न जीवन की अन्तिम स्वांस तक करना चाहिये, इन्हें मन, वाणी और शरीर के द्वारा ही जीता जा सकता है।

कामनाओं को "मन" से भगवान के नाम जप के द्वारा, क्रोध को "वाणी" से सभी से प्रेम के बोल द्वारा और लोभ को "शरीर" से दूसरों की मदद द्वारा जीता जा सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 02-02-2011

मन रूपी रेत में परमात्मा रूपी सीमेंट को अच्छी तरह से मिश्रित कर लेना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य होता है।

जो व्यक्ति अपने मन को रेत के समान मानकर और परमात्मा को सीमेन्ट के समान मानकर अच्छी प्रकार से मिश्रित कर लेता है तो उसे सांसारिक बड़े से बड़े भूकम्प भी नहीं हिला पाते हैं।