आध्यात्मिक विचार - 31-01-2011

आँख से अंधे संसार को, कामनाओं से अंधे विवेक को, अभिमान से अंधे अपने से श्रेष्ठ को और लालच से अंधे स्वयं के दोषों को कभी नहीं देख पाते हैं।

जिस प्रकार आंखों से संसार को देखा जाता है उसी प्रकार कामनाओं के त्याग से विवेक को, अभिमान के त्याग से अपने से श्रेष्ठ को, लालच के त्याग से स्वयं के दोषों को देखा जा सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 30-01-2011

वही व्यक्ति सत्य और असत्य का भेद जान पाता है जो केवल स्वयं को उपदेश देता है।

जो व्यक्ति स्वयं को उपदेश देता है वह शीघ्र ही सत्य में स्थित हो जाता है और दूसरों को उपदेश देता है वह हमेशा असत्य में ही स्थित रहता है।

इसलिये व्यक्ति को वाणी से बोलते समय स्वयं सुनने का भाव होना चाहिये, दूसरों को सुनाने का भाव नहीं होना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 29-01-2011

केवल सुख-शान्ति चाहने से शान्ति नही मिल सकती है बल्कि सांसारिक कामनाओं के शान्त होने पर ही सुख-शान्ति मिल सकती है।

प्रत्येक व्यक्ति सुख और शान्ति ही चाहता है लेकिन कर्म दुखः और अशान्ति के लिये ही करता है, व्यक्ति जैसा कर्म वैसा ही फल पाता है।

जब तक व्यक्ति की सांसारिक कामनायें शान्त नहीं हो जाती हैं तब तक व्यक्ति को वास्तविक सुख और शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

आध्यात्मिक विचार - 25-01-2011

व्यक्ति माया के प्रभाव से तब तक अज्ञानी ही बना रहता है जब तक परमात्मा रूपी सद्‍गुरु प्राप्त नही हो जाते हैं।

जब व्यक्ति परमात्मा स्वरूप सदगुरु की पूर्ण रूप से शरण नही हो जाता है, तब भगवान स्वयं शरीर रूपी रथ के सारथी बनकर स्वयं मार्ग दर्शन करने लगते हैं।

तब व्यक्ति सद्‍गुरु की कृपा से भगवान की शरणागति प्राप्त करके ब्रह्म-ज्ञान में स्थित होकर सभी सांसारिक कर्मों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है।

आध्यात्मिक विचार - 24-01-2011

व्यक्ति का ज्ञान स्वभाव के कारण कामनाओं से घिरकर माया के प्रभाव से आज्ञान से आवृत हो जाता है, अज्ञान से आवृत होने के कारण ही वह क्षणिक सुख के लिये घोर कष्ट उठाता रहता है।

जबकि हर व्यक्ति यह जानता है सुख स्थिर रहने में है लेकिन वह स्वयं को दूसरों से अधिक ज्ञानी समझकर प्रतिस्पर्धा के कारण निरन्तर दौड़ लगाता रहता है और स्वयं की शक्ति को नष्ट करता रहता है।

जब व्यक्ति अपनी बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर कर लेता है तब तन भी स्थिर हो जाता है, और जब तन और मन दोनों स्थिर हो जाते हैं तब व्यक्ति को कभी न समाप्त होने वाले आनन्द की प्राप्ति होती है।

आध्यात्मिक विचार - 23-01-2011


जीवात्मा दो तत्वों जीव-तत्व एवं आत्म-तत्व से मिलकर बना है, जीवात्मा दो होकर भी एक ही होते हैं।

क्योंकि जीव ज़ड़ शक्ति है और आत्मा चेतन शक्ति है, इसलिये जीव शक्ति बिना चेतन शक्ति के क्रियाशील नहीं हो सकती है, इसलिये चेतन तत्व भगवान को कभी भूलना नहीं चाहिये।

जो व्यक्ति इन दोनों तत्वों को अलग-अलग अनुभव कर लेता है वह हंस अवस्था को प्राप्त हो जाता है और जो व्यक्ति इन दोनों तत्वों को भाव द्वारा अलग-अलग अनुभव करके जीव-तत्व को आत्म-तत्व में विलीन कर देता है वह परमहंस अवस्था को प्राप्त कर परम-पद को प्राप्त कर जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 22-01-2011

स्वयं को कर्ता समझकर कार्य करना सांसारिक बन्धन का कारण होता है और स्वयं को अकर्ता समझकर कार्य करना मुक्ति का कारण होता है।

जब तक व्यक्ति स्वयं को कर्ता समझकर और आत्मा को अकर्ता समझकर कार्य करता है, तब तक व्यक्ति कर्ता-भाव के कारण कर्म-बंधन में फ़ंसकर कर्म के अनुसार सुख-दुख भोगता है।

जब व्यक्ति स्वयं को अकर्ता समझकर और आत्मा को कर्ता समझकर कार्य करता है, तब जीव अकर्ता-भाव के कारण कर्म बन्धन से शीघ्र मुक्त होकर परम पद को प्राप्त कर जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 21-01-2011

बुद्धि से संसार को जाना जाता है और मन से आत्मा को जाना जाता है।

जब व्यक्ति बुद्धि से संसार को जानने की कौशिश करता है तब वह अज्ञानतावश सासारिक सुख-दुख भोगने लगता है।

जब व्यक्ति मन से आत्मा को जानने की कौशिश करता है तभी वह आत्मिक-आनन्द प्राप्त करने लगता है।

आध्यात्मिक विचार - 20-01-2011

बुद्धि सहित मन को निज स्वार्थ के भाव से संसार के कार्यों में लगाना भौतिक-कर्म होता है जो कि जन्म-मृत्यु का कारण बनता है।

बुद्धि सहित मन को परमार्थ के भाव से संसार के कार्यों में लगाना आध्यात्मिक-कर्म होता है, जो मुक्ति का कारण बनता है।

जब व्यक्ति सभी सांसरिक वस्तुओं को भगवान की समझकर और सभी प्राणीयों को भगवान का अंश समझकर बिना किसी फल की कामना से परमार्थ में लगाता है तो वही भगवान की वास्तविक भक्ति होती है।

आध्यात्मिक विचार - 19-01-2011


जीवात्मा बूँद के समान होता है और परमात्मा सिन्धु समुद्र के समान होता है।

जिस प्रकार जो गुण समुद्र में होते हैं वही गुण समुद्र की बूँद में भी होते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा गुणों में परमात्मा के समान ही होता है लेकिन मात्रा में परमात्मा से भिन्न होता है।

जीवात्मा ससीम (सीमित) होता है और परमात्मा असीम (असीमित) होता है, लेकिन जब जीवात्मा अहंकार से ग्रसित होकर स्वयं को परमात्मा समझने लगती है तो वह सांसारिक बन्धन में बँध जाती है।

आध्यात्मिक विचार - 18-01-2011

स्वयं के उद्धार की शुद्ध मन से इच्छा तो करो, भगवान तो सभी जीवात्माओं का उद्धार करने के लिये तत्पर रहते है।

व्यक्ति जब तक शुद्ध मन से स्वयं के उद्धार की इच्छा नहीं करता है तब तक व्यक्ति का इस भवसागर से पार उतरना असंभव ही होता है।

भगवान तो सभी व्यक्तियों को अपने निज-धाम ले जाने के लिये हमेशा उत्सुक ही रहते हैं, लेकिन व्यक्ति संसार छोड़ने के लिये तैयार ही नहीं होता है।

आध्यात्मिक विचार - 17-01-2011

जो व्यक्ति अपने मन की क्रियाशीलता पर ध्यान केन्द्रित रखता है, उसका ही मन स्थिर हो पाता है।

जो व्यक्ति केवल स्वयं के मन में उठने वाले विचारों पर ध्यान केन्द्रित रखता है, वह शीघ्र ही भगवान की कृपा का पात्र बन जाता है।

मानव जीवन भगवान की कृपा पाने के लिये पात्रता हासिल करने के लिये ही मिला है।

आध्यात्मिक विचार - 15-01-2011

मन में सद-विचार होते हैं तो हमेशा सत्कर्म ही होते हैं और मन में दुर्विचार होंगे तो हमेशा दुष्कर्म ही होता है।

दूसरों के सुख की इच्छा करने से मन में हमेशा सद-विचार उत्पन्न होते है और केवल स्वयं के सुख की इच्छा करने मन में दुर्विचार ही उत्पन्न होते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 14-01-2011

व्यक्ति जिस भावना से भगवान को भजता है, भगवान भी व्यक्ति को उसी भावना से भजते हैं।

व्यक्ति जिस भाव से अपनी कामना पूरी करने के लिये भगवान का स्मरण करता है, भगवान उस व्यक्ति की उसी भाव से कामना पूर्ति करते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 13-01-2011

संसार में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के मन की बात कभी नही जान सकता है यदि कोई व्यक्ति जान सकता है तो सिर्फ़ अपने मन की बात ही जान सकता है।

किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति की निन्दा या गुणगान नहीं करनी चाहिये, ऎसा करने वाला अपने समय का दुरुपयोग ही करता है।

इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को केवल भगवान की ही स्तुति या गुणगान करना चाहिये, ऎसा करने वाला ही आपने समय का सही उपयोग करता है।

आध्यात्मिक विचार - 12-01-2011

जब भगवद-प्राप्ति रुपी परम-सिद्धि के लिये जीवात्मा ज्ञान-मार्ग पर शरीर को साधन बनाता है तो अष्ट-सिद्धियों के लालच में फ़ंस जाता है तो घूम-फ़िरकर फ़िर से संसार में ही आ गिरता है, ज्ञान-मार्ग में यही सबसे बडी बाधा है।

आध्यात्मिक विचार - 11-01-2011

सनातन का अर्थ होता है जो अनादि है और अनन्त है वह एक मात्र परमात्मा है, भगवान कृष्ण द्वारा गीता में वर्णित वर्णाश्रम धर्म ही सनातन धर्म है जो सनातन धर्म को मानता है वही भगवान का भक्त हो सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 10-01-2011

जिस प्रकार उदय होते समय सूर्य लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है, उसी प्रकार महापुरुष सुख और दुःख में एक समान रहते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 09-01-2011


मनुष्य शरीर रथ के समान है, इस रथ में घोंडे़ (इन्द्रियाँ), लगाम (मन), सारथी (बुद्धि) और रथ के स्वामी जीव (कर्ता-भाव) में और आत्मा (द्रृष्टा-भाव) में रहता है।

जब तक जीव शरीर रुपी रथ को मन रुपी लगाम से बुद्धि रुपी सारथी के द्वारा चलाता रहता है, तब जीव जन्म-मृत्यु के बंधन में फ़ंसकर कर्मानुसार सुख-दुख भोगता रहता है।

जब जीव का विवेक जाग्रत होता है तब मन रुपी लगाम को बुद्धि रुपी सारथी सहित आत्मा को सोंप देता है तब जीव द्रृष्टा-भाव में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 08-01-2011


मिथ्या वह होता जो सत्य जैसा प्रतीत होता है लेकिन सत्य नही होता है।

जिस प्रकार किसी भी वस्तु की परछाई सत्य प्रतीत होती है लेकिन सत्य नही हो सकती है, परछाईं का स्वरुप विकृत होता है, उसी प्रकार भौतिक संसार आध्यात्मिक संसार की परछाई मात्र है इसलिये संसार मिथ्या है यह सत्य नही हो सकता है।

इसी लिये संसार में प्रेम का स्वरुप भी विकृत होता है, प्रेम करने के योग्य एक मात्र ईश्वर ही हो सकता है क्योंकि ईश्वर ही एक मात्र सत्य है।

आध्यात्मिक विचार - 06-01-2011


जब तक व्यक्ति पतन और उत्थान का भेद नही जानता है तब तक वह पतन के मार्ग पर ही चलता रहता है।

जब तक व्यक्ति अपने सभी कर्तव्य कर्म-फलों को मन से ईश्वर को नहीं सोंपता है तब तक वह पतन के मार्ग पर ही चलता है।

जब व्यक्ति अपने सभी कर्तव्य कर्म-फलों को मन से ईश्वर को सोंपता रहता है, तब वह उत्थान की मार्ग पर चलने लगता है।

आध्यात्मिक विचार - 04-01-2011


वर्ण और वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा से ही मनुष्यों के स्वच्छ चरित्र का निर्माण हो सकता है।

स्वच्छ चरित्र से ही स्वच्छ समाज का निर्माण होसकता है।

स्वच्छ समाज से स्वच्छ राष्ट्र का निर्माण हो सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 03-01-2011


जो छोटी-मोटी ऋद्धियों-सिद्धियों को पाने के चक्कर में अपने शरीर को घोर कष्ट देते हैं और अपमे जीवन के बहुमूल्य समय का दुरूपयोग ही करते है।

आध्यात्मिक विचार - 02-01-2011

सांसारिक व्यवहारिकता में तन और धन को ही लगाना चाहिये, मन को केवल भगवान में ही लगाना चाहिये।

मनुष्य़ को पुरुषार्थ करने के लिये शास्त्रों ने (तन, मन और धन) तीन वस्तुओं बताय़ी हैं, सबसे पहले बुद्धि के द्वारा तन में मन को स्थिर करके भौतिक कर्म के द्वारा धन की प्राप्ति की जाती है।

धन की प्राप्ति के बाद बुद्धि के द्वारा तन और धन को संसार के व्यवहार में लगा देना चाहिये, और मन को भगवान के चरणों में स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिये, क्योंकि आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त होने के बाद मन को संसार में लगाने पर व्यक्ति अपने पतन के मार्ग की ओर चला जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 01-01-2011

जब व्यक्ति स्वयं के मुख से कहे गये शब्दों को स्वयं सुनता है तब व्यक्ति के स्वभाव में सहजता से परिवर्तन होने लगता है।

जिस प्रकार हर व्यक्ति के शरीर के द्वारा जो भी कार्य होता है वह उसके स्वयं के लिये ही होता है, उसी प्रकार व्यक्ति वाणी से जो कर्म करता है वह भी उसी के लिये ही होता है।

जब व्यक्ति किसी के लिये अपशब्द कहता है तो वह वास्तव मे स्वयं को ही अपशब्द बोल रहा होता है।