संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक आसुरी स्वभाव वाले दूसरे दैवीय स्वभाव वाले, जो व्यक्ति आसुरी स्वभाव वाला होता है वह अपनी इच्छानुसार पुरुषार्थ करता है, और जो व्यक्ति दैवीय स्वभाव वाला होता है वह शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करता है।
जिस व्यक्ति का मन से परमात्मा से राग रहता है, और तन से सभी सांसारिक कर्तव्य कर्मो को अनासक्त भाव से करता रहता है, वही सच्चा वैरागी होता है। ऎसे वैरागी व्यक्ति को कोई साधारण व्यक्ति नहीं पहचान सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति में पाँचों ज्ञान इन्द्रियों के आकर्षण से बुद्धि में कामना उत्पन्न होती है, विवेक द्वारा अच्छी-बुरी कामनाओं के बारे में सोचा जाता है, मन के द्वारा वैसी ही इच्छा जाग्रत होती है, उसी इच्छा के अनुसार कर्म होता है।
संसार में जो कुछ भी अभी तक हुआ है, जो कुछ भी हो रहा है और जो कुछ भी आगे होगा, वह सब भगवान के पूर्व निर्धरित संकल्प से ही होता है, लेकिन मनुष्य जिस भाव से देखता है, सुनता है, स्पर्श करता है, वही व्यक्ति का वर्तमान कर्म होता है।
व्यक्ति बुद्धि से जैसा सोचता है, मन में वैसे ही विचार उत्पन्न होते है, वैसे ही कर्म होते है, इसलिये जिस व्यक्ति के मन में कभी बुरे विचार उत्पन्न नहीं होते हैं, उस व्यक्ति से कभी भी पाप-कर्म नही होते हैं।
व्यक्ति जब तक स्वयं को शरीर समझता रहता है तब तक वह मिथ्या अंहकार से ग्रसित रहता है, जब तक व्यक्ति मिथ्या अंहकार से ग्रसित रहता है तब तक व्यक्ति अज्ञानी ही होता है।
बिना फल की कामना से कर्म करने पर ही परमात्मा की अनुभूति हो सकती है, बिना परमात्मा की अनुभूति के वास्तविक ज्ञान प्रकट नहीं हो सकता है, बिना ज्ञान के अज्ञान नहीं मिट सकता है, बिना अज्ञान मिटे भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
अपने कर्तव्य कर्म पर दृष्टि रखने वाला ही जीवन में सुख एवं शान्ति को प्राप्त कर पाता है, दूसरों के कर्तव्य कर्म पर दृष्टि रखने वाला कभी सुख एवं शान्ति कभी प्राप्त नहीं कर पाता है।
श्री मद भगवत गीता के अनुसार अपने कर्तव्य को जानकर निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्मो को करना ही भगवान की भक्ति करना होता है, अन्य किसी कर्म को भगवान की भक्ति कहना स्वयं को धोखा देना ही होता है।
प्रत्येक मनुष्य को एक जन्म के कर्मों को कई जन्मों तक भोगने पड़ते हैं, इस जन्म के मानसिक सुख-दुख अगले कई जन्मों के शारीरिक सुख-दुख के रूप में भोगने पड़ते हैं।
प्रत्येक मनुष्य को दुख-सुख की अनुभूति दो प्रकार से होती है, मानसिक रूप से और शारीरिक रूप से, शरीरिक सुख-दुख पूर्व जन्म के कर्म के कारण भोगने पड़ते हैं और मानसिक सुख-दुख इस जन्म के कर्म के कारण भोगने पड़ते हैं।
जो भी इच्छायें इस जीवन में पूर्ण होती हैं, वह पूर्व जन्म की कामानायें होती है, हम इस जीवन में जो भी कामनायें करते हैं, वह अगले जन्म जीवन में पूर्ण होंगी, क्योकि सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिये ही प्रत्येक जीव को शरीर धारण करना ही पड़ता है।
काम, क्रोध, लोभ और मोह व्यक्ति के सबसे बड़े दुश्मन हैं, जो व्यक्ति के अन्दर ही स्थित रहते हैं, जो व्यक्ति इन दुश्मनों पर विजय प्राप्त कर लेता है तो उस व्यक्ति का संसार में कोई दुश्मन नही रह जाता है।
मन को संसार से हटाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये बल्कि मन को भगवान में लगाने का प्रयत्न करना चाहिये, ऎसा करने से एक दिन सांसारिक कामनायें स्वत: ही समाप्त हो जाती हैं।
जो मनुष्य दूसरों को जानने का प्रयत्न करता रहता है, वह स्वयं को कभी नही जान पाता है, जो व्यक्ति स्वयं को जान जाता है, वह एक दिन परमात्मा को भी जान जाता है।
संसार में वही मनुष्य शक्तिशाली होता है, जिसने सर्वशक्तिमान भगवान की शरण ग्रहण कर ली है, भगवान की शरण में रहने वाला अभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है।
धन पाने के लोभ का त्याग करने वाला, बुद्धि के द्वारा कामनाओं का त्याग करने वाला, अपना कर्तव्य कर्म को जानने वाला और सहज रूप से प्राप्त धन से संतुष्ट रहने वाला व्यक्ति ही स्थाई शान्ति को प्राप्त कर पाता है।
पाप का मूल कारण "लोभ" होता है, लोभ के कारण ही विपत्तियाँ आती हैं, लोभ के कारण ही शत्रुता का जन्म होता है, लोभ के कारण ही व्यक्ति पतन को प्राप्त होता है।
परदेश में विद्या सबसे बड़ा धन होती है, संकट में बुद्धि सबसे बड़ा धन होती है, परलोक में धर्म सबसे बड़ा होता है और चरित्र सभी स्थानों में सबसे बड़ा धन होता है।