॥ अमृत-वाणी - ३ ॥


जब तक स्वयं को कर्ता मान कर कार्य करते रहोगे तो बंधन में ही फ़ंसे रहोगे, और अकर्ता बन कर कर्म करोगे तो बंधन से मुक्त हो जाओगे।
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फ़ल की इच्छा से कार्य करने से सकाम-भाव की उत्पत्ति होती है, और फ़ल की इच्छा के बिना कार्य करने से ही निष्काम भाव की उत्पत्ति होती है।
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स्वभाव का अर्थ होता है अपना भाव, केवल भाव ही अपना है और भाव ही सबसे बलवान है, इस भाव से ही अप्रकट परमात्मा भी प्रकट कर सकते हो।
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पदार्थ (अनित्य वस्तु) वह होता जिसका रुप और आकार बदल जाता है, तत्व (नित्य वस्तु) वह होता जिसका रुप और आकार कभी नही बदलता है।
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दूसरों को जानने का प्रयत्न करते रहोगे तो स्वयं को कभी नही जान पाओगे, स्वयं को जानने का प्रयत्न करोगे तो एक दिन परमात्मा को भी जान जाओगे।
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अपनी सभी वासना (इच्छा) रूपी धागों को इकट्ठा करके भगवद्-इच्छा रूपी मोटी रस्सी तैयार करो, इसी रस्सी के सहारे भव-कूप (संसार) से बाहर निकलने का प्रयत्न करो।
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जीवन में शान्ति चाहते हो तो सांसारिक व्यवहार में मन को मत फँसाओ, मन को भगवान में लगाने का प्रयत्न करो, भगवान में मन लगने पर ही मन शान्त होगा।
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संसार के चिंतन से मन अशुद्ध होता है, परमात्मा के चिंतन से मन शुद्ध होता है मन के पूर्ण शुद्ध होने पर ही नित्य अविनाशी आनन्दस्वरूप परमात्मा प्रकट होता है।
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जो कुछ भी दिखाई देता है वह सब अनित्य वस्तु (संसार) है, और जो दिखाई नही देता वह नित्य वस्तु है नित्य वस्तु (परमात्मा) का ही अस्तित्व है, अनित्य वस्तु का कोई अस्तित्व नही है।
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भगवान की माया (धन, सम्पदा और परिवार) को प्राप्त करने की इच्छा मत करो, माया-पति (भगवान) को पाने की इच्छा करोगे तो माया तो पीछे स्वयं ही चली आयेगी, क्योंकि माया तो भगवान की एक पतिव्रता स्त्री के समान है।
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परमात्मा से कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा ही परमात्म-सिद्धि को प्राप्त करने में सबसे बडी बाधा है।
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केवल लक्ष्मी के भक्त न बनकर लक्ष्मी-नारायण के भक्त बनोगे, तो लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहेगी।
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क्षणभंगुर सांसारिक स्वार्थों में ही लिप्त रहोगे तो जीवन में भगवान की कृपा-सिद्धि को कैसे प्राप्त कर पाओगे।
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मन में क्षणभंगुर संसार का विचार कम करने से कामनायें सिमटने लगेंगी, और मन भगवान में लगने लगेगा।
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संसार में कमल के पत्ते की तरह रहो, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहते हुए जल का स्पर्श नही करता है।
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॥ अमृत-वाणी - २ ॥



धर्मानुसार कार्य करने पर वही कार्य होगें, जिनसे वर्तमान में मन को आनन्द मिलेगा और भविष्य में परमानन्द स्वरुप की प्राप्ति होगी।
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एकान्त में रह कर ही शान्ति का अनुभव होगा, यदि एकान्त में न रह सको तो अच्छे लोगों का संग करो और बुरे लोगों के संग से दूर रहो।
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मन की शुद्धि निष्काम-भाव (बिना फ़ल की इच्छा) से कार्य करने से ही होगी, सकाम-भाव (फ़ल की इच्छा) से मन की शुद्धि कभी नही होगी।
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मनुष्य जीवन में संगति का सबसे अधिक प्रभाव पडता है, पाप कर्म से बचना चाहते हो तो दुष्ट स्वभाव वालों की संगति से हमेशा दूर रहो।
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सत्संग के बिना परमात्मा को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है, जब तक जिज्ञासा उत्पन्न नही होगी तब तक भगवान की प्राप्ति असंभव है।
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संसार से प्रेम करने से दुख के अलावा और कुछ नही मिलता है, परमात्मा से प्रेम करने से ही आनन्द की प्राप्ति होगी।
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जो समय का मूल्य जानेगा वही समय का सदुपयोग कर पायेगा, संसार में समय से अधिक मूल्यवान वस्तु और कोई नही है।
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जगत से प्रेम करोगे तो जन्म-मरण के चक्कर में पडे रहोगे, जगदीश से प्रेम करोगे तो जन्म-मरण से मुक्त को जाओगे।
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जीवात्मा अज्ञानता के कारण चाहता कुछ है और इच्छा किसी अन्य की करता है, जैसी इच्छा करते हो वैसा ही प्राप्त करते हो।
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सांसारिक वस्तु का चिन्तन करोगे तो चिन्ताओं से ग्रस्त रहोगे, भगवान का चिन्तन करोगे तो सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाओगे।
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मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य माया-पति की शरण में जाकर माया को पार करके भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त करना होता है।
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स्वयं को कर्ता मान कर कार्य करने से सकाम-कर्म होता है, और स्वयं को अकर्ता मान कर कार्य करने से निष्काम-कर्म होता है।
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ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास न करो, अज्ञानता दूर करने का प्रयत्न करो, अज्ञानता दूर होते ही एक दिन ज्ञान स्वयं प्रकट हो जायेगा।
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सकाम-भाव से कार्य करते रहोगे तो संसारिक बंधन में बंधे रहोगे, निष्काम-भाव से कर्म करने पर ही भगवान की भक्ति प्राप्त कर सकोगे।
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जो निर्गुण-निराकार है उसे सगुण-साकार करने का प्रयत्न करो, परमात्मा निर्गुण-निराकार भी है और वही परमात्मा सगुण-साकार भी है।
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॥ अमृत-वाणी - १ ॥



नि:स्वार्थ भाव से जो भी पुरुषार्थ किये जाते हैं, वही सही मायने में परमार्थ होते हैं।
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सदगुरु से प्राप्त शरणागति मन्त्र का जाप श्रद्धा से करने से ही मन की शुद्धि होती है।
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संतो के साथ निरन्तर सत्संग करोगे तो धीरे-धीरे परमात्मा से दूरी कम होती जायेगी।
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मन को संसार में जितना अधिक लगाओगे तो उतने ही परमात्मा से दूर होते जाओगे।
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सभी दुखों से निवृत्ति परम-आनन्द स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होने के बाद ही होती है।
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संसार में निष्ठा रखोगे तो बंधन में फ़ंसोगे, भगवान में निष्ठा रखोगे तो मुक्त हो जाओगे।
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पाप कर्म केवल भगवान के शरणागत होकर भगवद-भक्ति करने से ही नष्ट हो सकते है।
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जीवात्मा जब से शरणागति की पूर्ण महिमा जान जाती है वह तभी से मुक्त हो जाती है।
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जितनी अधिक शारीरिक सुख की इच्छा करोगे उतने ही अधिक मानसिक दुख प्राप्त करोगे।
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परमात्मा प्राप्ति तभी संभव है जब स्वयं पर अविश्वास और भगवान पर अटूट विश्वास होगा।
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भक्ति-मार्ग में प्रवेश के केवल दो ही मार्ग है निष्काम कर्म-मार्ग और निष्काम ज्ञान-मार्ग।
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भगवान की कृपा केवल उन्ही पर होती है, जो निष्काम-भाव से भगवान पर आश्रित होकर कार्य करते हैं।
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मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना होता है।
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शरीर पालन के लिये अधर्म न करो, शरीर तो यहीं रह जायेगा लेकिन अधर्म तो अनेकों जन्मो तक पीछा नही छोडेगा।
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शक्तिशाली वही है जिसने सर्वशक्तिमान भगवान की शरण ग्रहण कर ली है, भगवान की शरण में रहने वाला भय से मुक्त हो जाता है।
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