॥ अमृत-वाणी - २१ ॥


भक्ति तो ईश्वर के लिये परम-प्रेम रूप, अमृत स्वरूप है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य तृप्त हो जाता है, सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है।
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मनुष्य को यज्ञ, दान और तप रुपी कर्मो का कभी त्याग नही करना चाहिये लेकिन आसक्ति और फ़लों का त्याग अवश्य करना चाहिये।
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भक्ति में भक्त स्वयं को, इस संसार को, और धर्म-कर्म को भगवान को अर्पित करके, सिद्ध हो जाने पर लोक व्यवहार कभी नही त्यागता है।
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परमात्मा के प्रति निर्मल चित्त, दृड़ श्रद्धा और सच्ची आस्था होने से भजन स्वयं होने लगता है, किसी भी बाह्य आडंबर की आवश्यकता नही है।
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भक्ति तो परम-प्रेम स्वरूप है जिसे बताया नहीं जा सकता, इसे प्राप्त कर मनुष्य उसी को देखता है, उसी को सुनता है, उसी के बारे में बोलता है।
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जिसने इस मानव शरीर में परम-ब्रह्म को जान लिया, वही बुद्धिमान है, ऎसे बुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक जीव मात्र में परम-ब्रह्म को देखते हुए इस संसार से जाते हैं, वह अमर हो जाते हैं।
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गृहस्थ सच्चा है, तो उसका घर अवश्य स्वर्ग बन जाएगा, क्योंकि सच्चे गृहस्थ में आत्म-नियंत्रण, आत्म-समपर्ण सेवाभाव एवं त्याग की भावना होती है, उसे आत्म-साक्षात्कार में कोई कठिनाई नहीं होगी।
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वही सच्चा गृहस्थ है, जिसने अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है और उसका मन भगवान में स्थिर हो गया, जो परमार्थ के लिए समर्पित हमेशा अग्रसर रहता है, वही सच्चा संत है।
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यदि मन प्रार्थनामय हो जाए और हृदय पूजा की भावना से ओत-प्रोत हो जाए, तो निश्चय ही घर परब्रह्म, परमात्मा का पावन मंदिर बन जाएगा और परमानंद प्राप्ति स्वत: हो जाएगी।
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जब तक मन में ईर्ष्या रहे तब तक समझना चाहिये कि भक्ति का प्रवेश नही हुआ है, तब तक भक्ति के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है।
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श्री हरि की भक्ति सुंदर चिंतामणि है, यह जिसके हृदय में बसती है, वह संतों का संग करता है, जिससे इस मणि को प्राप्त करना सुलभ हो जाता है।
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भक्ति रूपी मणि तो स्वयं धन-रूप है, मोह रूपी दरिद्रता उसके समीप कभी नहीं आ पाती है, उस मणि के बिना कोई भी सुखी नहीं रह सकता है।
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भक्ति रूपी मणि तो स्वयं प्रकाशमान होती है, काम रूपी अन्धकार की छाया तो उसका स्पर्श भी नही कर पाती है, उस मणि के बिना प्रकाश असंभव है।
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श्री हरि की भक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, वह दिन-रात अपने आप ही परम प्रकाश रूप रहता है, उसको दीपक, घी और बत्ती की आवश्यकता नही होती है।
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जबकि वह मणि जगत्‌ में प्रकट है, फ़िर भी बिना श्री हरि की कृपा के उसे कोई पा नहीं सकता है, उसके पाने के उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं।
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॥ अमृत-वाणी - २० ॥


श्री "मद्‍ भगवत-गीता" भगवान द्वारा गाया गीत (परम ज्ञान) है और "श्री मद्‍ भागवत-पुराण" भक्त द्वारा भगवान को प्राप्त करने शैक्षिक कथायें है।
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नित्य गीता का अभ्यास करने वाला मनुष्य की यदि मृत्यु जाती है तो वह फ़िर मनुष्य योनि में जन्म लेकर पुन: अभ्यास करके परमगति को प्राप्त होता है।
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प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य नित्य "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का अभ्यास करता होता है वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लिप्त नहीं होता।
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जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता है उसी प्रकार जो मनुष्य "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का ध्यान करता है उसे पाप कभी स्पर्श नहीं करते है।
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आँख के अंधे संसार को, कामना के अंधे विवेक को, अभिमान के अंधे अपने से श्रेष्ठ को और लालच के अंधे स्वयं के दोषों को कभी नहीं देख सकतें है।
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जो जीवात्मा अपने मन रूपी रेत में परमात्मा रूपी सीमेंट को अच्छी तरह से मिश्रित कर लेता है तो बडे से बडा भूकम्प भी उसको हिला नही पाता है।
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भगवान कहते है, मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्री गीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।
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जिस प्रकार संसार का अंधकार सूर्य के प्रकाश से दूर होता है, उसी प्रकार जीवात्मा का अज्ञान रुपी अन्धकार आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश से दूर हो सकता है।
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कामनायें, क्रोध और लोभ मनुष्य के तीन मुख्य शत्रु है, कामनाओं को भगवान के नाम जप से, क्रोध को प्रेम से और लोभ को परमार्थ से जीता जा सकता है।
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यदि मुक्त जीवन जीना चाहते हो तो सहज-भाव से कुछ भी करना, कुछ भी पाना और किसी भी प्रकार का विरोध करना छोडने का अभ्यास करना अभी से शुरु कर दो।
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भगवान के भक्त का व्यवहार सदैव सभी के प्रति मन से मधुर, वचन से मधुर और शरीर से मधुर ही होता है।
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कोई भी मनुष्य तब तक किसी को सच्चा सुख नही दे सकता है जब तक अपने अभिमान का त्याग नही करता है।
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जिसके मन में भगवान से निरन्तर प्रीत बनी रहती है तो उसके मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द हीरे-मोती के समान होता है।
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सच्चा बैरागी वही है जो मन से विरक्त होता है, सच्चा गृहस्थ वही है, जो मन से उदार होता है नहीं तो दोनों का पतन निश्चित है।
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परमात्मा को पाने के लिए पूर्ण निष्ठा भाव से वही मार्ग चुनना चाहिए, जो स्वयं को अच्छा लगे, परमात्मा तो सभी मार्गो से सहज, सुलभ है।
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॥ अमृत-वाणी - १९ ॥


जब जीव मन और बुद्धि से संसार को जानने की कौशिश करता है तब वह अज्ञानतावश सासारिक सुख-दुख भोगने लगता है, और जब जीव मन और बुद्धि से आत्मा को जानने की कौशिश करता है तभी वह आत्मिक-आनन्द प्राप्त करने लगता है।
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जब जीव स्वयं को कर्ता मानकर और आत्मा को अकर्ता मानकर कार्य करता है, तब जीव कर्ता-भाव के कारण कर्म-बंधन में फ़ंसकर कर्म के अनुसार सुख-दुख भोगता है, और जब जीव स्वयं को अकर्ता देखकर और आत्मा को कर्ता देखकर कार्य करता है, तब जीव अकर्ता-भाव के कारण मुक्ति को प्राप्त करता है।
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जीवात्मा दो तत्वों से मिलकर बना है, (जीव-तत्व + आत्म-तत्व = जीवात्मा) जो मनुष्य इन दोनों तत्वों को अलग-अलग अनुभव कर लेता है वह हंस अवस्था को प्राप्त होता है और जो मनुष्य इन दोनों तत्वों को अलग-अलग करने के बाद जीव-तत्व को आत्म-तत्व में विलीन कर देता है वह परमहंस अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
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जीव, माया के प्रभाव से आज्ञान से आवृत होने के कारण वह क्षणिक सुख के लिये घोर कष्ट उठाता रहता है, जीव यह जानता है सुख स्थिर रहने में है लेकिन वह दूसरों से अधिक ज्ञानी समझकर निरन्तर दौड़ लगाता रहता है और स्वयं को ही धोखा देता रहता है।
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जीव, माया के प्रभाव से तब तक अज्ञानी बना रहता है जब तक परमात्मा रूपी सद्‍गुरु नही मिलता है, सद्‍गुरु की कृपा से जीव माया-पति (भगवान) की शरणागति प्राप्त करके ब्रह्म-ज्ञान में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।
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जो भगवान की कृपा प्राप्त कर लेते है उनको सभी देवी-देवताओं की कृपा स्वत: ही प्राप्त जाती है।
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अनेक देवी-देवताओं को वही पूजते है जिनकी बुद्धि सांसारिक कामनाओं द्वारा पथ-भ्रष्ट हो गयी है।
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जो मनुष्य सदा भगवान के विश्वरुप का स्मरण करता है, वह मनुष्य बिना स्नान के भी सदा पवित्र रहता है।
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जो मनुष्य भक्ति-भाव से एकाग्र-चित्त होकर श्रीगीता का अध्यन करता है उसे सभी शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है।
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स्वयं के उद्धार की शुद्ध मन से इच्छा तो करो, भगवान तो सभी जीवात्माओं का उद्धार करने के लिये तत्पर रहते है।
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केवल शान्ति चाहने से शान्ति नही मिल सकती है बल्कि सांसारिक इच्छाओं के शान्त होने पर ही शान्ति मिल सकती है।
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सभी मनुष्यों को नित्य "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का अध्यन और "श्री मद्‍ भागवत-पुराण" का श्रवण अवश्य करना चाहिये।
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जिस तरह एक दीपक से पूरे घर का अंधेरा दूर हो जाता है, उसी तरह एक शुद्ध-भक्त से कुल की सात पीडी़यों का उद्धार हो जाता है।
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जिस प्रकार फ़ूलों की सुगंध वातावरण में सब ओर फ़ैल जाती है उसी प्रकार भगवान के भक्त की महक सभी तरफ़ स्वयं फैल जाती है।
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जो मनुष्य स्वयं को उपदेश देता है वही सत्य और असत्य का भेद जान पाता है केवल दूसरों को उपदेश देने वाला असत्य में ही जीता है।
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