आध्यात्मिक विचार - 30-11-2011


यह संसार भगवान का एक रंगमंच है, इस रंगमंच पर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पूर्व भूमिका (पूर्व जन्म के कर्म) के आधार पर वर्तमान भूमिका प्राप्त हुई है। 

प्रत्येक व्यक्ति अपनी भूमिका से अनभिज्ञ होने के कारण भूमिका को ही स्वयं समझते है, यही सभी मनुष्यों के पुनर्जन्म का कारण होता है। 

जो व्यक्ति अपनी भूमिका को दृष्टा भाव में रहकर निभाता है, उस व्यक्ति को इस संसार रूपी रंगमंच पर पुनः भूमिका प्राप्त नहीं होती है।

आध्यात्मिक विचार - 28-11-2011


सन्यास आश्रम में स्थित व्यक्ति को केवल सांख्य के सिद्धान्तों का ही पालन करना चाहिये, और सांख्य के सिद्धान्तों के अनुभवों की चर्चा ही करनी चाहिये।

गृहस्थ आश्रम में स्थित व्यक्ति को केवल कर्म के सिद्धान्तो का ही पालन करना चाहिये, और कर्म के सिद्धान्तों के अनुभवों की चर्चा ही करनी चाहिये।

ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित व्यक्ति को सांख्य और कर्म के सिद्धान्तों की चर्चा कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित व्यक्ति को इनमें से किसी भी सिद्धान्तों का अनुभव नहीं होता है। 

जो व्यक्ति इन दोनों सिद्धान्तों से उपर उठ जाता है, केवल वही व्यक्ति दोनों सिद्धान्तों की चर्चा करने का अधिकारी होता है, चाहे वह व्यक्ति वर्तमान में सन्यास आश्रम में स्थित होता है, या गृहस्थ आश्रम में स्थित होता है।  

आध्यात्मिक विचार - 26-11-2011


प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं की अधूरी जानकारी से ही पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति मिथ्या अहंकार के कारण अधूरी जानकारी को ही पूर्ण जानकारी समझता रहता है।

जो व्यक्ति स्वयं की जानकारी को हमेशा अधूरी जानकारी ही समझता रहता है, केवल वही व्यक्ति संसार में ज्ञानी होता है।

आध्यात्मिक विचार - 25-11-2011



संसार में सभी व्यक्ति ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं लेकिन उनका ज्ञान अज्ञान से आवृत रहता है।  

जिस प्रकार दर्पण धूल से ढ़क जाता है, उसी प्रकार सभी व्यक्तियों का ज्ञान कामनाओं से ढ़क जाता है।

जब कोई व्यक्ति स्वार्थ की भावना त्यागकर, निरन्तर कर्म करता है, तब उस व्यक्ति के ज्ञान पर से कामनाओं का आवरण स्वतः ही हटने लगता है, और ज्ञान सूर्य के सामान स्वयं प्रकट हो जाता है। 


आध्यात्मिक विचार - 24-11-2011


जिस व्यक्ति को दूसरों के दोष दिखाई देते हैं, उस व्यक्ति को स्वयं के दोष दिखाई नहीं देते हैं। 

जब तक व्यक्ति की बुद्धि में दूसरों की भावना को जानने की जिज्ञासा होती है, तब तक व्यक्ति की बुद्धि में स्वयं की भावना को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है।

जब व्यक्ति की बुद्धि स्वयं के स्वभाव को जानने की जिज्ञासा करती है, उसी व्यक्ति को स्वयं के दोष दिखने लगते हैं, तब भगवान की कृपा से उस व्यक्ति के दोष स्वतः मिटने लगते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 23-11-2011


आँखो की ज्योति से जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब असत्य होता है, ज्ञान की ज्योति से जो दिखाई देता है, केवल वह सत्य होता है।

जब तक व्यक्ति असत्य को ही सत्य समझता रहता है, तब तक व्यक्ति के मन में सत्य को जानने की, जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है।


ज्ञान की ज्योति वही व्यक्ति प्राप्त कर पाता है, जिसके मन में सत्य को जानने की जिज्ञासा होती है, श्रद्धा विहीन जिज्ञासा का कोई महत्व नहीं होता है।

आध्यात्मिक विचार - 22-11-2011


जिस ज्ञान से व्यक्ति को वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती है, उस व्यक्ति के लिये केवल वही वास्तविक ज्ञान होता है।     

जन्म से सभी मनुष्य वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण, स्वप्न के समान संसार को ही वास्तविक संसार समझते रहते हैं। 

जब जिस व्यक्ति को भगवान की कृपा पात्रता हासिल होती है, तब उस व्यक्ति को स्वतः सत्संग प्राप्त होता है, और तभी व्यक्ति को वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है। 

जब व्यक्ति को वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तब वह व्यक्ति वास्तविक स्वरूप में स्थित होकर मुक्त हो जाता है। 

आध्यात्मिक विचार - 21-11-2011


मनुष्य जीवन केवल भगवान की कृपा-पात्रता हासिल करने के लिये मिलता है। 

सांसारिक वस्तुओं की और सांसारिक सुखों की प्राप्ति प्रत्येक व्यक्ति के प्रारब्ध पर निर्भर करती है, लेकिन एक क्षण के सत्संग की प्राप्ति भगवान की कृपा पर निर्भर करती है।

जब व्यक्ति को निरन्तर सत्संग करते करते अपनी शारिरिक और मानसिक क्रिया में स्वयं के ही दोष दिखलाई देने लगें, मन में पश्चाताप होने लगे, और आँखों से स्वतः अश्रुपात होने लगे, तभी समझना चाहिये, भगवान की कृपा पात्रता हासिल हुई है।

आध्यात्मिक विचार - 18-11-2011


सभी व्यक्ति संसार में खाली हाथ आये हैं, और खाली हाथ जायेंगे।  

इस सत्य को दूसरों को समझाना प्रत्येक व्यक्ति के लिये जितना आसान होता है, लेकिन स्वयं को समझाना उतना ही कठिन होता है।   

इस सत्य को जो व्यक्ति केवल स्वयं को समझाते हुए सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है, केवल वही व्यक्ति स्वयं को समझा पाता है।  

आध्यात्मिक विचार - 17-11-2011


जब तक किसी भी व्यक्ति में, दूसरों को समझाने का भाव रहता है, तब तक उस व्यक्ति में समझने का भाव उत्पन्न नहीं होता है।

जब तक व्यक्ति में समझने का भाव उत्पन्न नहीं होता है, तब तक कोई भी व्यक्ति शब्दों के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ सकता है। 

आध्यात्मिक विचार - 16-11-2011


संसार में कोई भी व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति की भावना को आहत कभी नहीं करता है। 

यदि किसी व्यक्ति की भावना आहत होती है, वह व्यक्ति मिथ्या अहंकार के आधीन होता है। 

आध्यात्मिक विचार - 15-11-2011


सभी व्यक्ति संसार में भिखारी हैं, एक भिखारी, दूसरे भिखारी से लेकर, और तीसरे भिखारी को देकर, अज्ञानता के कारण स्वयं को दाता समझ लेता है। 

जबकि प्रत्येक व्यक्ति यह जानता हैं, दाता केवल कृष्णा हैं, और संसार में तो सभी भिखारी है।  

आध्यात्मिक विचार - 14-11-2011


वास्तविक कर्म वही होता है, जिस कर्म से बंधन उत्पन्न नहीं होता है, और वास्तविक विद्या वही होती है, जिस विद्या से मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

अन्य सभी कर्म तो श्रम करके समय को व्यर्थ करना हैं, और अन्य सभी विद्या तो यान्त्रिक क्रिया मात्र हैं।

आध्यात्मिक विचार - 12-11-2011


जिस प्रकार गृहस्थ जीवन के पथ पर पति और पत्नी एक दूसरे के बिना अधूरे होते हैं, दोनों के बिना गृहस्थ जीवन एक कदम भी नहीं चल सकता है। 

उसी प्रकार भगवद पथ पर ज्ञान और भक्ति एक दूसरे के बिना अधूरे होते हैं, भक्ति के पास आँखे नहीं होती है और ज्ञान के पास पैर नहीं होते हैं। 

जब भक्ति ज्ञान की आंखों से देखती है, और ज्ञान जब भक्ति के पैरों की सहायता से चलता है, तभी भगवद पथ की दूरी तय होती है।

आध्यात्मिक विचार - 09-11-2011


जन्म से प्रत्येक व्यक्ति की दो ही आवश्यकतायें होती हैं, शारिरिक सुख और मन की शान्ति। 

इन दोनों वस्तुओं की खोज प्रत्येक व्यक्ति संसार की वस्तुओं में करता रहता है, जबकि उसे संसार में दुख और अशान्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं मिलता है।

जो व्यक्ति इन दुख और अशान्ति को सहन कर लेता है, अज्ञानता के कारण वह व्यक्ति इन्हीं को सुख और शान्ति समझ लेता है। 

आध्यात्मिक विचार - 08-11-2011


संसार में बुद्धिमान व्यक्ति वह होता है, जो स्वयं के अनुभव से स्वयं शिक्षा ग्रहण करता है।

जो व्यक्ति स्वयं के द्वारा लिखा गये शब्दों को स्वयं पढ़कर या स्वयं के द्वारा बोले गये शब्दों को स्वयं सुनकर समझने का प्रयत्न करता है, वह व्यक्ति स्वयं निरन्तर अध्यन (स्वध्याय) करता हुआ एक दिन भगवान की कृपा से स्वयं को जान लेता है।

जो व्यक्ति भगवान की कृपा से स्वयं को जान लेता है, उस व्यक्ति के लिये संसार में जानने के लिये कुछ भी शेष नहीं रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 07-11-2011


प्रत्येक मनुष्य का वर्तमान शारीरिक जीवन पूर्व संस्कारों पर आधारित होता है और वर्तमान संस्कारों से प्रत्येक मनुष्य के अगले शारीरिक जीवन का निर्धारण होता है। 

संस्कारों की उत्पत्ति प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव (स्वयं की भावना) पर निर्भर करती है। 

स्वयं के हित की भावना से निम्न संस्कारों की उत्पत्ति होती है। और दूसरों के हित की भावना से उच्च संस्कारों की उत्पत्ति होती है। 

आध्यात्मिक विचार - 05-11-2011


संसार में कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति को गुमराह नहीं कर सकता है, व्यक्ति अपने अविश्वासी स्वभाव के कारण स्वयं ही गुमराह होता है।

यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को गुमराह करने का प्रयत्न भी करता है, तो वास्तव में वह स्वयं ही गुमराह हो रहा होता है।

आध्यात्मिक विचार - 01-11-2011


संसार में बुद्धिमान व्यक्ति वह होता है, जो अपनी प्रसंशा सुनकर कभी हर्षित नहीं होता है और अपनी निंदा सुनकर कभी दुखी नहीं होता है।