आध्यात्मिक विचार - 31-12-2010


जब तक व्यक्ति असत्य को ही सत्य समझता रहता है तब तक उसके मन में सत्य को जानने की जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं होती है।

जब व्यक्ति यह जान जाता है जो कुछ तन की आँखों से दिखाई दे रहा है वह सब असत्य है, तब व्यक्ति के मन की आँख खुलती है।

मन की आँख खुलने पर ही सत्य को जानने की मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तब वह व्यक्ति एक दिन सत्य को खोज ही लेता है।

आध्यात्मिक विचार - 30-12-2010


आवश्यकता के अनुसार कर्म करने वाला, और आवश्यकता के अनुसार धन-संपत्ति का संग्रह करने वाला ही पाप-कर्म से बच पाता है।

सभी मनुष्य जो कुछ करते हैं, वह अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं करते है, इच्छा के अनुसार वस्तु का संग्रह करने वाला कभी भी पाप-कर्म करने से नहीं बच सकता है।

जो व्यक्ति आवश्यकता के अनुसार कर्म संग्रह करता है, वह सभी प्रकार के पाप-कर्मों से बचकर एक दिन स्वयं महापुरुषों की अवस्था को प्राप्त कर जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 29-12-2010

अच्छे समय में बुद्धि सत-पथ पर होती है, बुरे समय में बुद्धि पथ-भ्रष्ट हो जाती है।

जब व्यक्ति का अच्छा समय होता है, उस समय व्यक्ति की बुद्धि सत-पथ पर होती है, तब यदि मन में बुरे विचार होते हैं तो वाणी और शरीर से तो सत्कर्म होता दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में दुष्कर्म ही हो रहा होता है।

जब व्यक्ति का बुरा समय होता है, उस समय में बुद्धि पथ-भ्रष्ट हो जाती है, तब यदि मन में अच्छे विचार होते हैं तो वाणी और शरीर से तो दुष्कर्म ही होता दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में सत्कर्म ही हो रहा होता है।

आध्यात्मिक विचार - 28-12-2010


किसी भी व्यक्ति के द्वारा जो कर्म होते हैं, वह केवल तीन प्रकार से ही होते है।

१. मन से विचारों के द्वारा जो भाव अच्छे या बुरे भाव उत्पन्न होते है, वही वर्तमान-कर्म (इस जीवन के) कर्म होते हैं।


२. वाणी के द्वारा बोलकर जो भी भौतिक-कर्म होते हैं, वह वर्तमान-कर्म (इस जीवन के कर्म) और प्रारब्ध-कर्म (पूर्व जन्म के कर्म-फल) का मिश्रण होते हैं।


३. शरीर के द्वारा जो भी भौतिक-कर्म होते दिखाई देते हैं, वह केवल प्रारब्ध-कर्म (पूर्व जन्म के कर्म के फल) ही होते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 27-12-2010


संसार एक धर्मशाला के समान है, हर व्यक्ति यहाँ यात्री है, व्यक्ति का शरीर इस धर्मशाला का कमरा है, यहाँ उपयोग की सभी वस्तुऎं धर्मशाला की हैं, इसलिये धर्मशाला की सभी वस्तुओं को व्यक्ति को अपना कभी नहीं समझना चाहिये, जो व्यक्ति स्वयं को यात्री समझकर सभी वस्तुओं का अनासक्त भाव से उपयोग करता है वह सभी सांसारिक बंधन से मुक्त रहता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का भली प्रकार से उपयोग करता है तो अगली बार उसे इस धर्मशाला में उच्च श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है, जो यात्री इस धर्मशाला की वस्तुओं का दुरुपयोग करता है तो उसे अगली बार निम्न श्रेणी का कमरा प्राप्त होता है।

जो यात्री इस धर्मशाला की सभी वस्तुओं का बिना किसी आसक्ति के उपयोग करता है तो वह सभी कर्म बंधन से मुक्त रहता है, उसे फिर इस धर्मशाला रूपी संसार में पुन: नहीं आना पड़ता है, तब वह अपने घर में पहुँचकर शाश्वत आनन्द प्राप्त करता है।

आध्यात्मिक विचार - 26-12-2010


जब व्यक्ति "मैं" शरीर नही हूँ, यह भूलने का अभ्यास करता हैं तभी वह आध्यात्मिक पथ पर आगे चल पाता है।

आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा करने वाला व्यक्ति जब स्वयं की पहिचान बाहरी स्वरूप शरीर से न करके अपने आन्तरिक स्वरूप जीवात्मा के रूप में करने लगता है, तभी उसकी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ होती है।

भौतिक सुख-सुविधा का प्राप्त होना भगवान की कृपा नहीं होती है वह तो व्यक्ति का स्वयं का कर्म का फल होता है, आध्यात्मिक पथ में जो दूरी तय होती है केवल वही भगवान की कृपा होती है।

आध्यात्मिक विचार - 25-12-2010


शब्द ही ब्रह्म होते हैं! शब्द ही अस्त्र होते हैं! शब्द ही ब्रह्मास्त्र है! ब्रह्माण्ड में ब्रह्मास्त्र के समान अन्य कोई शक्ति नहीं है।

मनुष्य के पास ब्रह्मास्त्र ही सबसे बड़ी शक्ति होती है, व्यक्ति को शब्द रूपी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग हमेशा धर्म के लिये ही करना चाहिये, शब्द रूपी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग अधर्म के लिये करने पर व्यक्ति का नाश ही होता है।

प्रत्येक व्यक्ति शब्दों का प्रयोग दो प्रकार से करता है एक वाणी से बोलकर और दूसरा हाथों से लिखकर, इसलिये व्यक्ति को सोच समझकर इस ब्रह्मास्त्र का उपयोग करना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 24-12-2010


मन की केवल दो ही अवस्थाऎं होती है, मन एक समय में एक अवस्था में ही रह सकता है, मन एक अवस्था में संसार में स्थित रहता है और दूसरी अवस्था में भगवान में स्थित रह सकता है।

जीवात्मा का मनुष्य जीवन में जो समय बिना किसी आसक्ति के भगवान में स्थिर रहता है, केवल उसी समय का वास्तविक उपयोग होता है, इसके अतिरिक्त मन संसार में कहीं भी विचरण करता है वह सब समय का दुरुपयोग मात्र ही होता है।

इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन को संसार हटाकर भगवान में स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 23/12/2010

मानव जीवन का अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष मनुष्य शरीर में रहते हुए ही प्राप्त होता है।

जो व्यक्ति शरीर में रहते हुए स्वयं को सभी कर्म बन्धन से मुक्त अनुभव कर लेता है, और जीवन की अन्तिम श्वाँस तक मुक्त भाव में स्थिर रहता है, ऎसा व्यक्ति स्थिर प्रज्ञ कहलाता है।

ऎसी स्थिर प्रज्ञ जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करके संसार में फ़िर कभी लौटकर नही आती है, वह जीवात्मा भगवान के परम-धाम में नित्य शाश्वत जीवन को प्राप्त होती है।

आध्यात्मिक विचार - 22/12/2010


शास्त्र स्वयं भगवान की आज्ञा है, भगवान की आज्ञा का उलंघन करके संसार में कोई भी मनुष्य सुख-शान्ति से नहीं रह सकता है।

शास्त्रों में से हर व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार भगवान की आज्ञा को जानने का प्रयत्न करना चाहिये, शास्त्र प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग आज्ञा देते हैं क्योंकि हर व्यक्ति का कर्तव्य कर्म अलग-अलग होता है।

प्रत्येक व्यक्ति को वेद-शास्त्रों में केवल स्वयं के लिये दी गयी भगवान की आज्ञा को ही पढ़ना चाहिये, शास्त्रों को पढ़कर केवल अपने लिये आज्ञा को जान पाना अत्यंत दुर्लभ है, क्योंकि शास्त्रों के अधिक अध्यन से भ्रम ही उत्पन्न होता है, इसलिये किसी अच्छे गुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिये।

आध्यात्मिक विचार - 21/12/2010


साधु और संतों को उनके रंग-रूप या पहनावा से नही जाना जा सकता है।

साधु और संतों को उनके रहन-सहन और स्वभाव से ही जाना जा सकता है, स्वभाव जानने के लिये उनकी संगति करना आवश्यक है, क्योंकि बिना संगति किये किसी भी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं जाना जा सकता है।

साधु व संत केवल वही होता है, जिसके द्वारा एक मात्र परमतत्व-परमात्मा को साध लिया गया है और जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त हो चुकी हैं।

आध्यात्मिक विचार - 20/12/2010


संसार में जो भी मनुष्य जन्म लेता है वह सभी प्रकृति के भक्त होते है, जबकि यह मनुष्य जीवन केवल भगवान का भक्त बनने के लिये प्राप्त हुआ है।

केवल भगवान का शुद्ध-भक्त ही प्रकृति पर भी विजय प्राप्त कर पाता है, प्रकृति पर विजय का अर्थ मृत्यु पर विजय प्राप्त करना होता है, जिसे प्राप्त करके किसी भी जीव को किसी भी माँ के गर्भ में नहीं जाना पड़ता है।

प्रत्येक व्यक्ति को केवल भगवान का शुद्द भक्त बनने का प्रयत्न करना चाहिये, शुद्ध भक्त केवल वही होता है जो अपने सभी कर्तव्य कर्मो को शास्त्र विधि के अनुसार भगवान का समझकर करता है।

आध्यात्मिक विचार - 19/12/2010


भगवान के प्रति मन से राग होने पर ही संसार के प्रति मन से बैराग उत्पन्न हो पाता है।

जो व्यक्ति संसार में अपने सभी कर्तव्य कर्मों को भगवान की लीला समझकर और भगवान का आदेश मानकर अपनी भूमिका निभाता है, वही भगवान का सच्चा भक्त और संसार से बैरागी होता है।

जो व्यक्ति न तो किसी की भूमिका में व्यवधान उत्पन्न करता है और न ही किसी के व्यवधान उत्पन्न करने से विचलित होता है, वही व्यक्ति वास्तव में बैरागी मानने योग्य होता है, ऎसा व्यक्ति सभी प्रकार के कार्यों को करते हुए भी कर्म बन्धन से मुक्त रहता है।

आध्यात्मिक विचार - 18/12/2010

मृत्यु आत्मा की नहीं होती है, शरीर की होती है, शरीर की मृत्यु को स्वयं की मृत्यु समझ लेने वाला व्यक्ति अज्ञानी होता है।

जब व्यक्ति भूल जाता है कि मृत्यु शरीर की होती है आत्मा की नही तभी सांसारिक मोह में फंस जाता है, क्योंकि शरीर तो वास्तव में मृत ही होता है, आत्मा के कारण ही चेतन दिखाई देता है।

जब व्यक्ति शरीर को स्वयं समझता है, और शरीर के नाम को अपना नाम समझने लगता है, शरीर के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझने लगता है, शरीर के कर्म को अपना कर्म समझने लगता है तब वह व्यक्ति अहंकार और मोह से ग्रसित होकर माया के अधीन हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 17/12/2010


सत्य और असत्य का भेद जानने के लिये शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण है।

केवल वही व्यक्ति किसी भी सांसारिक वस्तु का सुख प्राप्त कर पाता है जो उन वस्तुओं का उपयोग धर्मानुसार (शास्त्र विधि के अनुसार) करता है।

आध्यात्मिक विचार - 16/12/2010


जो व्यक्ति निरन्तर सत्संग (सत्य की संगति = प्रभु चिंतन) नहीं करता है तो असंग (असत्य की संगति=सांसारिक चिंतन) से वह व्यक्ति घिर जाता हैं।
जब व्यक्ति निरन्तर सत्संग नहीं करता है तब उसे असंग होने लगता है, क्योंकि निरन्तर सत्संग करने पर ही व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो पाता है।
जब तक वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होता है तब तक सांसारिक आसक्ति (मोह) का छूट पाना असंभव होता है।

विचार - 15/12/2010


प्रत्येक व्यक्ति को सुख और दुख की अनुभूति दो प्रकार से ही होती है।
१. शारीरिक रूप से
२. मानसिक रूप में
शारीरिक रूप से जो सुख-दुख की अनुभूति पूर्व जन्मों के कर्मों के परिणाम के कारण होती है, और मानसिक सुख दुख की अनुभूति वर्तमान जीवन के कर्म के परिणाम के कारण होती है।
वर्तमान जीवन के मानसिक सुख-दुख अगले जीवन के शारीरिक सुख-दुख में परिवर्तित हो जाते है, जो इस जीवन में शारीरिक सुख-दुख प्राप्त हो रहे हैं, वह पिछले जीवन के मानसिक सुख-दुख थे, इसी सुख-दुख को "प्रारब्ध" कहा जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 14/12/2010


अन्त मति सो गति!

व्यक्ति जीवन के आखिरी क्षण में जिस रूप का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, तो अगले जन्म में उसी शरीर को प्राप्त होता है।

हर व्यक्ति जीवन में किसी न किसी रूप के प्रति आसक्त अवश्य होता है, चाहे स्त्री हो या पुरुष, पशु हो या पक्षी, भूत हो या प्रेत, देवी हो या देवता आदि किसी का भी स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है तो अगले जन्म में उसी शरीर को प्राप्त होता है।

परन्तु, जो व्यक्ति जीवन में केवल भगवान के किसी भी एक रूप के प्रति आसक्त होता है तो वह भगवान को ही प्राप्त होता है, यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि होती है।

हर व्यक्ति को अपने अन्तिम क्षण की तैयार में लग जाना चाहिये, जो इस बात को समझकर स्वयं को समझा लेता है तो उसको मृत्यु प्रिय लगने लगती है, जिसे मृत्यु प्रिय लगती है, वह सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है।

आध्यात्मिक विचार - 13/12/2010


किसी भी बात का बुरा लगना या क्रोध आने से अहंकार की पहचान होती है।
हर व्यक्ति अपने अंहकार को स्वयं पहचान सकता है, जब भी किसी के भी द्वारा कही गयी बात बुरी लगती है या क्रोध आता है, चाहे वह क्रोध बाहर प्रकट न होकर केवल स्वयं के अन्दर भी रहता है तब तक अहंकार रहता ही है।
जब तक संसार में किसी भी बात का बुरा लगना समाप्त हो जाये तभी समझना चाहिये कि अब अहंकार समाप्त मिट गया है, यह कहना कि मुझे कोई अहंकार नहीं है, यह भी अहंकार ही होता है।

आध्यात्मिक विचार - 12/12/2010


प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं पर दृष्टि रखकर कार्य करना चाहिये।

हर व्यक्ति को यह नहीं देखना चाहिये कि कोई क्या कर रहा है, बल्कि यह देखना चाहिये कि मैं क्या कर रहा हूँ।

जब हम दूसरों में दोषों को खोजने लगते हैं तब स्वयं के दोषों को नहीं खोज पाते हैं, जब तक स्वयं के दोषों का निवारण नहीं करेंगे तो पाप कर्मों से कैसे बच सकते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 11/12/2010

आत्मा ईश्वर का अंश है जो कि सभी प्राणीयों में समान रूप से स्थित रहता है, इसलिए केवल देवी-देवताओं का ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी का आदर करना चाहिये, लेकिन किसी एक रूप में मन को स्थित करके पूजा-उपासना करनी चाहिये।

जब व्यक्ति की सभी कामनायें एक इष्ट के द्वारा पूर्ण हो सकती हैं तो अनेक देवी-देवताओं को पूजने की क्या आवश्यकता है? गीता के अनुसार अनेक देवी-देवताओं को पूजने वाले मूढ़ (निपट मूर्ख) स्वभाव वाले होते हैं।

आध्यात्मिक विचार - 10/12/2010

जिस प्रकार जो वस्तु जहाँ पर होती है वहीं ढूंढने पर मिलती है उसी प्रकार सुख और शान्ति जहाँ पर है वहीं तलाश करनी चाहिये।
सुख और शान्ति प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं के अन्दर स्थित रहती है, लेकिन हर व्यक्ति अपना सारा जीवन सुख और शान्ति की तलाश में संसार में इधर-उधर भटकता रहता है, जबकि संसार में दुख और अशान्ति के अलावा उसके हाथ अन्य कुछ नहीं आता है।

आध्यात्मिक विचार - 9/12/2010

कोई भी व्यक्ति एक क्षण भी बिना कर्म किये नही रहता है, और हर क्षण कर्मफल भी बनता है, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को केवल स्वयं के कर्म को ही देखना चाहिये।

जब व्यक्ति दूसरों के कर्मों को देखता है तो उस समय वह अपने कर्म से विमुख हो जाता है, जो व्यक्ति अपने कर्म से विमुख हो जाता है तो वह व्यक्ति पाप कर्म से नहीं बच सकता है।

आध्यात्मिक विचार - 8/12/2010

"माया" (सभी सांसारिक वस्तु) का पीछा करना छोडो "माया-पति" (माया के स्वामी) का पीछा करोगे माया तो पीछे-पीछे स्वयं दौडी आयेगी।
संसार में किसी भी व्यक्ति का कुछ नही है, लेकिन जब व्यक्ति उसे अपना समझने लगता हैं तो वह "माया" के आधीन हो जाता है तब व्यक्ति माया के पीछे-पीछे भागता रहता है, परन्तु माया कभी भी हाथ नही आती है।
जब व्यक्ति का विवेक जाग जाता है तो वह सब कुछ भगवान का समझकर माया-पति के पीछे भागने लगता है तब वह माया-पति के आधीन हो जाता है तब माया उसके पीछे-पीछे भागती है, क्योंकि माया पतिव्रता है, पतिव्रता उसी को प्रेम करती है जो उसके पति को प्रेम करता है।

आध्यात्मिक विचार - 7/12/2010


प्रत्येक मनुष्य को अच्छा शिष्य बनने की कोशिश करनी चाहिये, अच्छा गुरु वही होता जो एक अच्छा शिष्य होता है।
कभी भी गुरु बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, जो एक अच्छा शिष्य बनता है वह एक दिन अच्छा गुरु स्वत: ही बन जाता है।
जब व्यक्ति गुरु बनने की कोशिश करता है तो उस व्यक्ति को त्रिशंकु की तरह न तो इस लोक में और न ही परलोक में शान्ति प्राप्त होती है।

आध्यात्मिक विचार - 6/12/2010


केवल भगवान के नाम का गुणगान निरन्तर करने से ही सभी प्रकार की आशक्ति और विपत्ति से बचा जा सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्य कर्म करते हुए निरन्तर भगवान के नाम रुपी अमृत को पीते रहना चाहिये जिससे सभी प्रकार के भोगों को भोगते हुए भी सांसारिक विषयों के विष का असर नही हो सकेगा।

आध्यात्मिक विचार - 5/12/2010

जो व्यक्ति एक परमात्मा से अनेक जीवात्मा को उत्पन्न देखता है और अनेक जीवात्माओं में एक परमात्मा को देखता है, केवल वही व्यक्ति यथार्थ देख पाता है।

आध्यात्मिक विचार - 4/12/2010


जब मनुष्य की बुद्धि और मन एक ही दिशा में कार्य करतें है तब सारे भ्रम मिट जाते हैं।

जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री हमेशा अपने पति की आज्ञा का पालन करती है तो संसारिक गृहस्थ जीवन सुखमय होता है।

उसी प्रकार बुद्धि हमेशा मन की आज्ञा का पालन करे तो आध्यात्मिक जीवन आनन्दमय हो जायेगा।

आध्यात्मिक विचार - 3/12/2010

शास्त्रों के अनुसार कर्म का आचरण करना ही धर्म का आचरण करना होता है, जो व्यक्ति धर्म का ही आचरण करते हैं, उन व्यक्तियों से कभी कोई पाप-कर्म नहीं होता है।
प्रत्येक व्यक्ति का धर्म अलग-अलग होता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुरु से धर्म की शिक्षा लेनी चाहिये, तभी पाप कर्मों से बच सकोगे।

आध्यात्मिक विचार - 2/12/2010

गुरु वही होता जिसे हर वक्त अपने शिष्यों के आध्यात्मिक उत्थान की चिन्ता रहती है और शिष्य वही होता है जिसे गुरु की वाणी पर स्वयं से अधिक विश्वास होता है।
जब तक गुरु के प्रति दृढ़ श्रद्धा और गुरु की वाणी पर पूर्ण विश्वास नही होता है, तब तक चित्त की स्थिरता और अज्ञान का मिटना असंभव है।

आध्यात्मिक विचार - 1/12/2010

गुरू का कर्तव्य बोलना होता है और शिष्य का कर्तव्य सुनना होता है।

गुरु का कर्तव्य शास्त्रों के अनुसार शिक्षा देना होता है और शिष्य का कर्तव्य श्रद्धा और विश्वास के साथ सुनकर गुरु की आज्ञा को भगवान की आज्ञा समझकर पालन करना होता है।