॥ अमृत-वाणी - ११ ॥


जब जीवात्मा का परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है तब वह जीवात्मा परमात्मा से अनन्य भाव से प्रेम करने लगती है।
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शिव ही गुरु हैं, गुरु ही शिव हैं, दोनों में जो अन्तर मानता है, तीनो लोकों मे उसके समान पापी और कोई नही होता है।
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ब्रह्मज्ञानी एकान्त प्रिय, कामना रहित, चिन्ता मुक्त, राग-द्वेष रहित, मान-अपमान रहित और शांत-चित्त वाला होता है।
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यदि शिव जी नारज़ हो जायें तो गुरुदेव बचाने वाले हैं, किन्तु यदि गुरुदेव नाराज़ हो जायें तो बचाने वाला कोई नहीं।
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सांसारिक व्यवहार सहजता से निभाते चलो जो हो जाय तब भी सही और जो न हो तब भी सही मानकर सन्तोष करो।
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अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिये।
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परमात्मा हर प्राणी के हृदय में परम-मित्र भाव में रहता है, उसे केवल शास्त्रानुसार कर्म करके ही जाना जा सकता है।
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गुरु वही हैं जो नित्य, निर्गुण, निराकार, परम ब्रह्म का अनुभव करते हुए शिष्य के मन में ब्रह्म भाव को प्रकट कराते हैं।
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सदगुरु वही होता है जो सभी प्रकार के भ्रम का जड़ से मिटाने वाला और जन्म, मृत्यु तथा भय से मुक्त कराने वाला हैं।
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जैसे भृंगी कीट भ्रमर का चिन्तन करते-करते भ्रमर स्वरुप बन जाता है वैसे ही जीव ब्रह्म का ध्यान करते-करते ब्रह्म स्वरूप हो जाता है।
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जो ज्ञान-योग और भक्ति-योग में भेद करता है उसकी बुद्धि अभी भगवद-पथ पर अज्ञान से आवृत है।
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जिस प्रकार राष्ट्र का संविधान पुस्तकों में वर्णित हैं, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का संविधान शास्त्रों में वर्णित हैं।
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केवल भक्ति-योग द्वारा भगवान को पाने की इच्छा करने पर भगवद-प्राप्ति रुपी परम-सिद्धि शीघ्र प्राप्त होगी।
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जब तक पाप और पुण्य में उलझे रहोगे तो प्रकृति के तीनों गुणों के आधीन होकर बंधन में ही पडे रहोगे।
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ज्ञान-योग से भक्ति मिले या भक्ति-योग से ज्ञान, दोनो ही मार्गो से एक ही लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति होती है।
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