आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा करने वाला व्यक्ति जब स्वयं की पहिचान बाहरी स्वरूप शरीर से न करके अपने आन्तरिक स्वरूप जीवात्मा के रूप में करने लगता है, तभी उसकी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ होती है।
भौतिक सुख-सुविधा का प्राप्त होना भगवान की कृपा नहीं होती है वह तो व्यक्ति का स्वयं का कर्म का फल होता है, आध्यात्मिक पथ में जो दूरी तय होती है केवल वही भगवान की कृपा होती है।