॥ अमृत-वाणी - १६ ॥


मनुष्य जीवन में भगवद-चिंतन में जो समय गुजरता है उसी समय का सदुपयोग होता है बाकी समय का तो दुरुपयोग ही है।
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मनुष्य ही एक मात्र ऎसा जीव है जिसके के लिये संसार में कोई भी वस्तु ऎसी नही है जो प्राप्त करना चाहे और प्राप्त न कर सके।
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मुक्ति मनुष्य शरीर में ही मिलती है जो जीवात्मा मनुष्य शरीर में रहकर मुक्त हो जाती है वह संसार में फ़िर कभी लौटकर नही आती है।
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"मैं" शरीर नही हूँ जब से यह भूलने का अभ्यास करोगे तभी मोक्ष-पथ पर आगे चल सकोगे नही तो दुख के सागर में ही भटकते रहोगे।
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संसार एक सराय (धर्मशाला) है, यहाँ यात्री आते है कुछ समय ठहरतें है और चले जाते है जो अपने को यात्री समझता है वह बंधन से मुक्त रहता है।
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कर्म तीन प्रकार से किये जाते है, १.मन से, २.वाणी से और ३.शरीर से.....मन से विचार करके, वाणी से बोलकर, शरीर से क्रिया करके कर्म होता है।
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अच्छे समय में बुद्धि सत-पथ पर होती है उस समय मन के विचार बुरे होते है तो वाणी और शरीर से सत्कर्म होता दिखाई देता है परन्तु होता दुष्कर्म ही है।
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बुरे समय में बुद्धि पथ-भ्रष्ट हो जाती है उस समय मन के विचार अच्छे होते है तो वाणी और शरीर से दुष्कर्म होता दिखाई देता है परन्तु होता सत्कर्म ही है।
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वे मनुष्य महा-मूर्ख होते है जो छोटी-मोटी ऋद्धियों-सिद्धियों के चक्कर में अपने शरीर को घोर कष्ट देते हैं और जीवन के बहुमूल्य समय का दुरूपयोग करते है।
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वर्णाश्रम धर्म की शिक्षा से ही मनुष्य का स्वच्छ चरित्र का निर्माण होगा, स्वच्छ चरित्र से ही स्वच्छ समाज का निर्माण होगा और स्वच्छ समाज से स्वच्छ राष्ट्र का निर्माण होगा।
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मन के पीछे भागना बन्द करो, मन के पीछे भागने वाला दुख को प्राप्त होता है।
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आवश्यकता से अधिक धन-संग्रह करोगे, तो पाप-कर्म से कभी नही बच सकोगे।
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जब तक असत्य को सत्य समझते रहोगे तब तक सत्य को कभी नही जान पाओगे।
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सत्याचरण का पालन करने वाला एक दिन सत्य (परमात्मा) में स्थित हो जाता है।
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सत्य और असत्य, पाप और पुण्य के भेद को जानने में, शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण है।
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