॥ अमृत-वाणी - १७ ॥


व्यवहारिकता में तन और धन की आवश्यकता होती है मन की कोई भूमिका नही होती है।
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जब अपनी वाणी को स्वयं सुनने लगोगे तब स्वभाव में सहजता से परिवर्तन होने लगेगा।
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भगवान का चिंतन करते रहोगे तो सत्कर्म स्वत: ही होने लगेंगे और दुष्कर्मों से बचे रहोगे।
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जब तक पतन और उत्थान का भेद नही जानोगे तब तक पतन के मार्ग पर ही चलते रहोगे।
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एकाग्र-चित्त, दृढ़-श्रद्धा के साथ किये गये पुरुषार्थ से ही स्वार्थ सिद्धि और परमार्थ सिद्धि होती है।
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बुद्धिमान मनुष्य को स्वयं योग्य विचार करके तत्वज्ञानी सदगुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
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परिजनों, मित्रों और शुभ-चिंतकों से सम्बन्ध छूटे इससे पहले भगवान पर पूर्ण आश्रित हो जाओ।
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कलियुग में आध्यात्मिक ज्ञान से विमुखता और भौतिक ज्ञान की प्रखरता ही अशान्ति का मुख्य कारण है।
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नियत कर्म (आराधना) करते हुए जो भक्त भगवान से कुछ नहीं मांगते है वही भगवान के प्रिय भक्त होते हैं।
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मानव शरीर भौतिक उन्नति में व्यर्थ करने के लिये नही है परमात्मा की प्राप्ति करके सफ़ल बनाने के लिये है।
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मिथ्या वह है जो सत्य जैसा प्रतीत होता है लेकिन सत्य नही होता है, जैसे किसी भी वस्तु की परछाई सत्य जैसी प्रतीत होती है लेकिन सत्य नही हो सकती है उसका स्वरुप विकृत होता है।
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संसार में जब एक जीव दूसरे जीव के मन की बात नही जान सकता है यदि जान सकता है तो सिर्फ़ अपने मन की बात तब किसी की भी निन्दा-स्तुति करके अपना समय बर्बाद कर रहे हो।
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यह भौतिक संसार भी आध्यात्मिक संसार की परछाई है इसलिये संसार मिथ्या है यह सत्य नही हो सकता है, संसार में प्रेम का स्वरुप भी विकृत है, सत्य केवल परमात्मा है वही प्रेम करने योग्य है।
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सनातन का अर्थ होता है जो अनादि है और अनन्त है वह एक मात्र परमात्मा है, भगवान कृष्ण द्वारा गीता में वर्णित वर्णाश्रम धर्म ही सनातन धर्म है जो सनातन धर्म को मानता है वही भगवान का भक्त हो सकता है।
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जब भगवद-प्राप्ति रुपी परम-सिद्धि के लिये जीवात्मा ज्ञान-मार्ग पर शरीर को साधन बनाता है तो अष्ट-सिद्धियों के लालच में फ़ंस जाता है तो घूम-फ़िरकर फ़िर से संसार में ही आ गिरता है, ज्ञान-मार्ग में यही सबसे बडी बाधा है।
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