॥ अमृत-वाणी - १९ ॥


जब जीव मन और बुद्धि से संसार को जानने की कौशिश करता है तब वह अज्ञानतावश सासारिक सुख-दुख भोगने लगता है, और जब जीव मन और बुद्धि से आत्मा को जानने की कौशिश करता है तभी वह आत्मिक-आनन्द प्राप्त करने लगता है।
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जब जीव स्वयं को कर्ता मानकर और आत्मा को अकर्ता मानकर कार्य करता है, तब जीव कर्ता-भाव के कारण कर्म-बंधन में फ़ंसकर कर्म के अनुसार सुख-दुख भोगता है, और जब जीव स्वयं को अकर्ता देखकर और आत्मा को कर्ता देखकर कार्य करता है, तब जीव अकर्ता-भाव के कारण मुक्ति को प्राप्त करता है।
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जीवात्मा दो तत्वों से मिलकर बना है, (जीव-तत्व + आत्म-तत्व = जीवात्मा) जो मनुष्य इन दोनों तत्वों को अलग-अलग अनुभव कर लेता है वह हंस अवस्था को प्राप्त होता है और जो मनुष्य इन दोनों तत्वों को अलग-अलग करने के बाद जीव-तत्व को आत्म-तत्व में विलीन कर देता है वह परमहंस अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
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जीव, माया के प्रभाव से आज्ञान से आवृत होने के कारण वह क्षणिक सुख के लिये घोर कष्ट उठाता रहता है, जीव यह जानता है सुख स्थिर रहने में है लेकिन वह दूसरों से अधिक ज्ञानी समझकर निरन्तर दौड़ लगाता रहता है और स्वयं को ही धोखा देता रहता है।
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जीव, माया के प्रभाव से तब तक अज्ञानी बना रहता है जब तक परमात्मा रूपी सद्‍गुरु नही मिलता है, सद्‍गुरु की कृपा से जीव माया-पति (भगवान) की शरणागति प्राप्त करके ब्रह्म-ज्ञान में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।
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जो भगवान की कृपा प्राप्त कर लेते है उनको सभी देवी-देवताओं की कृपा स्वत: ही प्राप्त जाती है।
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अनेक देवी-देवताओं को वही पूजते है जिनकी बुद्धि सांसारिक कामनाओं द्वारा पथ-भ्रष्ट हो गयी है।
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जो मनुष्य सदा भगवान के विश्वरुप का स्मरण करता है, वह मनुष्य बिना स्नान के भी सदा पवित्र रहता है।
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जो मनुष्य भक्ति-भाव से एकाग्र-चित्त होकर श्रीगीता का अध्यन करता है उसे सभी शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है।
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स्वयं के उद्धार की शुद्ध मन से इच्छा तो करो, भगवान तो सभी जीवात्माओं का उद्धार करने के लिये तत्पर रहते है।
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केवल शान्ति चाहने से शान्ति नही मिल सकती है बल्कि सांसारिक इच्छाओं के शान्त होने पर ही शान्ति मिल सकती है।
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सभी मनुष्यों को नित्य "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का अध्यन और "श्री मद्‍ भागवत-पुराण" का श्रवण अवश्य करना चाहिये।
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जिस तरह एक दीपक से पूरे घर का अंधेरा दूर हो जाता है, उसी तरह एक शुद्ध-भक्त से कुल की सात पीडी़यों का उद्धार हो जाता है।
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जिस प्रकार फ़ूलों की सुगंध वातावरण में सब ओर फ़ैल जाती है उसी प्रकार भगवान के भक्त की महक सभी तरफ़ स्वयं फैल जाती है।
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जो मनुष्य स्वयं को उपदेश देता है वही सत्य और असत्य का भेद जान पाता है केवल दूसरों को उपदेश देने वाला असत्य में ही जीता है।
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