॥ अमृत-वाणी - २० ॥


श्री "मद्‍ भगवत-गीता" भगवान द्वारा गाया गीत (परम ज्ञान) है और "श्री मद्‍ भागवत-पुराण" भक्त द्वारा भगवान को प्राप्त करने शैक्षिक कथायें है।
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नित्य गीता का अभ्यास करने वाला मनुष्य की यदि मृत्यु जाती है तो वह फ़िर मनुष्य योनि में जन्म लेकर पुन: अभ्यास करके परमगति को प्राप्त होता है।
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प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य नित्य "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का अभ्यास करता होता है वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लिप्त नहीं होता।
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जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता है उसी प्रकार जो मनुष्य "श्री मद्‍ भगवत-गीता" का ध्यान करता है उसे पाप कभी स्पर्श नहीं करते है।
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आँख के अंधे संसार को, कामना के अंधे विवेक को, अभिमान के अंधे अपने से श्रेष्ठ को और लालच के अंधे स्वयं के दोषों को कभी नहीं देख सकतें है।
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जो जीवात्मा अपने मन रूपी रेत में परमात्मा रूपी सीमेंट को अच्छी तरह से मिश्रित कर लेता है तो बडे से बडा भूकम्प भी उसको हिला नही पाता है।
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भगवान कहते है, मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्री गीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।
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जिस प्रकार संसार का अंधकार सूर्य के प्रकाश से दूर होता है, उसी प्रकार जीवात्मा का अज्ञान रुपी अन्धकार आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश से दूर हो सकता है।
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कामनायें, क्रोध और लोभ मनुष्य के तीन मुख्य शत्रु है, कामनाओं को भगवान के नाम जप से, क्रोध को प्रेम से और लोभ को परमार्थ से जीता जा सकता है।
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यदि मुक्त जीवन जीना चाहते हो तो सहज-भाव से कुछ भी करना, कुछ भी पाना और किसी भी प्रकार का विरोध करना छोडने का अभ्यास करना अभी से शुरु कर दो।
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भगवान के भक्त का व्यवहार सदैव सभी के प्रति मन से मधुर, वचन से मधुर और शरीर से मधुर ही होता है।
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कोई भी मनुष्य तब तक किसी को सच्चा सुख नही दे सकता है जब तक अपने अभिमान का त्याग नही करता है।
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जिसके मन में भगवान से निरन्तर प्रीत बनी रहती है तो उसके मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द हीरे-मोती के समान होता है।
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सच्चा बैरागी वही है जो मन से विरक्त होता है, सच्चा गृहस्थ वही है, जो मन से उदार होता है नहीं तो दोनों का पतन निश्चित है।
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परमात्मा को पाने के लिए पूर्ण निष्ठा भाव से वही मार्ग चुनना चाहिए, जो स्वयं को अच्छा लगे, परमात्मा तो सभी मार्गो से सहज, सुलभ है।
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