॥ अमृत-वाणी - १३ ॥


संसार में दो प्रकार के ब्रह्मज्ञानी सदगुरु होते हैं, १.मौनी ब्रह्मज्ञानी और २.वक्ता ब्रह्मज्ञानी।
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वक्ता ब्रह्मज्ञानी संसार-सागर में व्याप्त सभी जीवात्माओं के उद्धार के लिये प्रयत्नशील रहता हैं।
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मौनी ब्रह्मज्ञानी से संसार को विशेष लाभ नही होता है, वह स्वयं के उद्धार में मग्न रहता है।
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गुरु स्वर्ग के लोकों का पथ-प्रदर्शक होता है, सदगुरु वैकुण्ठ के लोकों का पथ-प्रदर्शक होता है।
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सदगुरु ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म स्वरुप होता है वह ब्रह्म-ज्ञान के अनुसार भक्ति-मार्ग का पथ-प्रदर्शक होता है।
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गुरु "जीवन" की उन्नति का मार्ग-दर्शक होता है, सदगुरु "मृत्यु" की उन्नति का मार्ग-दर्शक होता है।
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गुरु शास्त्रों का ज्ञाता शिव स्वरुप होता है वह शास्त्र-ज्ञान के अनुसार कर्म-मार्ग का पथ-प्रदर्शक होता है।
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गुरु सांसारिक स्तर पर विवेक जाग्रत करता है और सदगुरु आध्यात्मिक स्तर पर विवेक जाग्रत करता है।
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गुरु स्वभाव से शांतचित्त, साधु-भाव में स्थित, मृदुभाषी, काम-क्रोध से रहित, सदाचारी और जितेन्द्रिय होते हैं।
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सांसारिक ज्ञान की शिक्षा देने वाला गुरु कहलाता है और ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा देने वाला सदगुरु कहलाता है।
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गुरु का अर्थ हैं "गु" अक्षर का अर्थ गुणातीत और "रु" अक्षर का अर्थ रुपातीत जो गुण और रूप से परे स्थित हैं।
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अच्छा गुरु वही होता है जो अच्छा शिष्य होता है इसलिये अच्छा शिष्य बनोगे तो अच्छा गुरु स्वत: ही बन जाओगे।
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गुरु के प्रति जब जीव की पूर्ण श्रद्धा स्थिर हो जाती है तब उस गुरु शरीर में परमात्मा सदगुरु के रुप में प्रकट होते है।
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गुरु का कर्तव्य धर्मानुसार बोलना और शिष्य का कर्तव्य श्रद्धा पूर्वक सुनकर गुरु की आज्ञा का पालन करना होता है।
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गुरु सांसारिक ज्ञान के अन्तर्गत पाप-पुण्य, सुख-दुख, अपने-पराये, आदर-अनादर, सही-गलत आदि का भेद सिखाते है।
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सदगुरु आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत सत्य-असत्य, तत्व-पदार्थ, आत्मा-शरीर, दिव्य-स्थूल आदि का भेद सिखाते है।
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जीवन में अनेक गुरु जन्म से स्वत: ही मिलते है या बनाने पडतें हैं और सदगुरु भगवान की कृपा से ही प्रकट होते हैं।
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गुरु ऎसा होना चाहिये जिसे हर वक्त शिष्यों का ध्यान हो और शिष्य ऎसा होना चाहिये जिसे गुरु पर स्वयं से अधिक विश्वास हो।
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जब तक गुरु के प्रति दृढ़ श्रद्धा और वाणी पर पूर्ण विश्वास नही होगा, तब तक चित्त की स्थिरता और ज्ञान की प्राप्ति असंभव है।
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मनुष्य के प्रथम गुरु माता-पिता ही होते है फ़िर पति-पत्नी एक दूसरे के गुरु होते है अन्त में दीक्षा-गुरु बनाना होता है बिना गुरु-भक्ति के सदगुरु की प्राप्ति नही होगी।
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