॥ अमृत-वाणी - १४ ॥


जब तक भगवान के अस्तित्व पर अटूट विश्वास नही होगा तब तक पाप करने से नही बच पाओगे।
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शास्त्रानुसार कर्म ही "धर्म" है इसलिये धर्म का सहारा लेकर चलोगे तो पाप-कर्म करने से बचे रहोगे।
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भगवान के नाम रुपी अमृत को पीते रहोगे तो सभी प्रकार की सांसारिक आशक्ति और विपत्ति से बचे रहोगे।
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जब मनुष्य की बुद्धि और मन एक ही दिशा में कार्य करतें है तब सारे भ्रम मिट जाते हैं, तभी मनुष्य का विवेक जागृत हो पाता है।
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जब मनुष्य का विवेक जागृत हो जाता है तब उस व्यक्ति के लिये शरीर एक यन्त्र के समान होता है और धन-सम्पत्ति मिट्टी के समान होती है।
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आत्मा ईश्वर का अंश है जो कि सभी प्राणीयों में समान रूप से स्थित रहता है, इसलिए केवल देवी-देवताओं का ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी का आदर करना चाहिये।
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अनेक देवी-देवताओं को पूजने-भजने वाले महामूर्ख होते है, एक देवता पर पूर्ण श्रद्धा रखने वाले ही बुद्धिमान होते है।
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माया (धन-सम्पदा) का पीछा करना छोडो माया-पति (परमेश्वर) का पीछा करोगे माया तो पीछे-पीछे स्वयं दौडी आयेगी।
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जिस प्रकार कोई वस्तु जहाँ पर होती है वहीं ढूंढने पर मिलती है उसी प्रकार सुख और शान्ति जहाँ पर है वहीं तलाश करो।
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जब तक दूसरों में दोषों को खोजते रहोगे तब तक स्वयं के दोषों से अनभिज्ञ रहोगे, तो स्वयं के दोषों का निवारण कैसे होगा।
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अच्छा वक्ता वही होता है जो अच्छा श्रोता होता है इसलिये अच्छा श्रोता बनोगे तो एक दिन अच्छा वक्ता स्वत: ही बन जाओगे।
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शिष्य बनने का प्रयत्न करो, गुरु बनने की कौशिश करोगे तो त्रिशंकु की तरह न तो इस लोक में और न ही परलोक में शान्ति मिलेगी।
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सुख-शान्ति शरीर में नही है वह तो आत्मा में है, इसलिये पहले आत्मा को जानने की जिज्ञासा तो उत्पन्न करो, तभी सुख-शान्ति प्राप्ति होगी।
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जब तक ब्रह्मज्ञानी सदगुरु न मिलें तब तक साधन-भक्ति पथ पर लगे रहना चाहिये, बिना सदगुरु के साधन-भक्ति सफ़ल नही होती है।
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पिछले जन्मों में जैसे कर्म रुपी बीज बो कर आये हो वही इस जन्म में कर्मफ़ल रुपी वृक्ष (शरीर) मिला है और वही फ़ल (सुख-दुख) खा रहे हो।
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इस जन्म में जैसे कर्म रुपी बीज बोओगे आगे के जन्मों मे वैसे ही कर्मफ़ल रुपी वृक्ष (शरीर) प्राप्त करोगे और वैसे ही फ़ल (सुख-दुख) खाने को मिलेंगे।
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