॥ अमृत-वाणी - ४ ॥


कर्तव्य कर्म (स्वधर्म पालन) करते हुए संसार में कार्य करो, परन्तु निस्वार्थ-भाव से प्रेम केवल परमात्मा से करो।
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इस जीवन-यात्रा की तैयारी तो करके आये हो अब तो ऎसी तैयारी करो जिससे आगे की जीवन-यात्रा मंगलकारी हो।
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संसार के व्यवहार में केवल कर्त्तव्य बुद्धि रखने से सांसारिक कामनायें कम होंगी, तभी भगवान में मन लग सकेगा।
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इस जीवन की सांसारिक कामनायें अगले जन्म मे पूर्ण होंगी, और भगवदीय कामनायें इसी जन्म में पूर्ण हो जायेगी।
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वर्णाश्रम के अनुसार कार्य करना ही स्वधर्म पालन है, स्वधर्म पालन किये बिना भगवान के निकट पहुँचना असंभव है।
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राष्ट्र की उन्नति केवल वर्णाश्रम के अनुसार कर्म करने से ही संभव होगी इसलिए देश में शास्त्रीय शिक्षा की आवश्यकता है।
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यह शरीर पूर्व जन्मों के कर्मों के फ़लों को भोगने के लिये मिला है, इस जीवन के शारीरिक सुख और दुख पूर्व जन्मों के कर्मो का फ़ल है।
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काम, क्रोध, लोभ और मोह यही जीव के सबसे बडे अन्दरूनी दुश्मन है, इन दुश्मनों को मिटा दोगे तो संसार में कोई दुश्मन पैदा ही नही होगा।
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इस जीवन में जो भी सांसारिक भोग की इच्छा करोगे वह अगले जन्मों में पूर्ण होंगी, जीवात्मा जैसी इच्छा करता है भगवान उसकी वैसी इच्छापूर्ति करते है।
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इस जीवन के मानसिक सुख और दुख इसी जीवन के कर्मो का फ़ल है, इस जीवन के मानसिक सुख और दुख अगले जीवन के शारीरिक सुख और दुख होंगे।
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सत्संग का अर्थ, सत्य का संग, भगवान का नाम, रुप और गुण का संग है वाकी सब असंग है, निरन्तर सत्संग करने से ही भगवान के स्वरूप का दर्शन हो जाता है।
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शास्त्रों की आज्ञा मानकर आचरण करना धर्माचरण कहलाता है, धर्माचरण से ही पाप कर्मों से बच सकोगे, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य को जानने में शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण है।
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शास्त्रों की आज्ञानुसार कार्य करना धर्म होता है, और शास्त्रों के विपरीत कार्य करना अधर्म होता है, धर्म के अनुसार कार्य करना पुण्य-कर्म और धर्म के विरुद्ध कार्य करना पाप-कर्म है।
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जब भी कोई सुन्दर स्त्री या पुरुष या किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षण हो तब सोचो जिसने इन्हे बनाया वो कितना सुन्दर होगा, इतना सोचने मात्र से मन के सारे विकार शान्त हो जायेंगे।
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मानव जीवन पानी के बुलबुले के समान है न जाने कब यह बुलबुला फ़ूट जाये, धर्माचरण न करने पर व्यवहार और परमार्थ दोनों बिगड जाते हैं, धर्मानुसार व्यवहार ही परमार्थ का मार्ग है।
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