स्वयं के हित का त्याग होने पर ही अभिमान का त्याग होता है।
कोई भी व्यक्ति तब तक किसी को सच्चा सुख नही दे सकता है और न ही किसी से सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है जब तक वह स्वयं के हित का त्याग मन से नहीं नही कर देता है।
अभिमान का त्याग हो जाने पर ही भगवान की भक्ति प्राप्त होती है।