भक्ति वह प्रेम स्वरूप है जिसे बताया नहीं जा सकता है बल्कि स्वयं ही अनुभव किया जा सकता है जिस व्यक्ति को भगवान का अनुभव हो जाता है उसमें भक्ति स्वयं प्रकाशित होने लगती है।
भक्ति को प्राप्त करके वह व्यक्ति कभी भी कुछ नहीं चाहता है, न किसी बात का शोक करता है, न किसी से घृणा करता है, न ही किसी संसारिक वस्तु में आसक्त होता है, और न किसी वस्तु का त्याग ही करता है।